Friday, May 28, 2010

हजारो ख्वाहिशें ऐसी...

जाने क्या ढूडें मन बावरा...यही एक सवाल अक्सर अपने आप करता हूं कि किस कस्तूरी की तलाश मे यह अधुरेपन का मसला हल नही होता है, बेसबब मन उडान भरता रहता है ज़ज्बातों के पंख लेकर कभी अपनेपन की तलाश मे कभी अपने होने की ज़िद मे...। वजूद के अहसास मे ख्वाहिशों की मिलावट फकीरी करने का हौसला देती है लेकिन कहते कि फक्कडी करने के लिए अहसास से ख्वाहिशों को निचोडकर सुखाना पडता है खुद को...एक बार किसी मित्र के मित्र से सुना था जो एक आश्रम चलाते है कि.. जग देखने के लिए जोगी नही बना हूं बल्कि जग देखकर जोगी बना हूं.. बात सटीक लगी मुझे उनकी कि जग देखने के लिए क्या जोगी बनना? हाँ जग देखकर कोई भी संवेदनशील व्यक्ति जोगी बन सकता है क्योंकि पग-पग पर इतना दिखावा,इतनी औपचारिकता और अभिनय की कभी कभी खुद के होने का अहसास के लिए भी टटोलना पडता है।

मन ऊब जाता है बेसबब उदासी कचोटती है जिन्दगी एक सफर है लेकिन हमसफर कोई नही मिलता है चलना है सभी को तन्हाई मे तन्हाई के साथ..।

हो सकता है कि यह सब बातें उस निर्वात की यात्रा से छ्नकर आती एक धुन्धली तलछ्ट हो जिससे रिसता दर्द एक अजीब से अहसास से भर देता है और मै अक्सर अपनेपन की परिभाषा तलाशता फिरता हूं दर-बदर।

अभी दार्शनिक मित्र मुकेश यादव जी ने सलाह दी है कि अनजाने ठिकानो पर भटकना चाहिए तभी मन के आंतरिक बन्धन टूटेंगे और शायद वह उर्जा भी जिसकी तलाश भी है इस खानाबदोशी का एक मकसद यह भी है कि फिलहाल मै जीवन के उस दोराहे पर खडा हूं जहाँ मुझे एक बडा निर्णय लेना है जो मेरे जीवन की दशा और दिशा तय करेगा उसी दुस्साहसिक निर्णय के लिए साहस और उर्जा जुटाने का स्वार्थ लेकर निकला हूं..।

जाने पहचाने लोग और इन जगहो पर अपने लोग अपनी अपेक्षा और छवियों के साथ जीते हुए मिलते है ऐसे मे कुछ नयेपन की उम्मीद करना बेमानी ही है...।

एक बार फिर खुद को समेटता हुआ निकलने की तैयारी मे हूं शायद कल या फिर परसो कहाँ के लिए इसका मुझे भी अभी तक पता नही है...।

डा.अजीत

बहरहाल

अभी काफिला निकला ही था कि वक्त और हालात ने अपने तमाशे शुरू कर दिए है लेकिन अपना हौसला भी इतना कमजोर नहीं है कि ये कारवा थम जाये... अभी हुआ यूं कि गाँव में अचानक से तेज़ बिजली के आने से लेपटाप का एडाप्टर खराब हो गया है सो आपसे रूबरु होने का साधन नहीं रहा आज अपने मित्र के लेपटाप से यह सब लिख रहा हूँ ताकि आपको यह खबर दे सकूं कि मैं किस वजह से आपसे संवाद नहीं स्थापित कर पा रहा हूँ
एक पहले लिखी पोस्ट "हजारो ख्वाहिशे ऐसी " मैंने अभी ब्लॉग से हटा ली है क्योंकि यह कुछ जगह पर खुल नहीं रही थी इसको दोबारा पोस्ट करूंगा जब मैं अपने लेपटाप पर काम करना शुरू कर दूंगा, फिलहाल बेजारी में हरिद्वार में वक्त गुज़ार रहा हूँ इस उम्मीद पर कि जल्द ही मुझे एडाप्टर रिप्लेस होकर मिल जाएगा और मैं यहाँ से रवानगी लूंगा
जल्द हाज़िर होता हूँ कुछ नयी इबारतो के साथ....(सही फॉर्मेट में पोस्ट नही आने के लिए क्षमा चाहूँगा,मित्र का लैपटॉप ब्लागिंग का अभ्यस्त नहीं है बस काम हो गया जैसे तैसे )
आपका
डॉ.अजीत

Friday, May 21, 2010

बहुत बेआबरु हो कर…

गालिब के शहर दिल्ली से उसी के शेर के साथ जीने का तज़रबा ले कर आज वहाँ से लौटा हूं उस जगह पर जहाँ अभी जाना भी जेहन मे कतई नही था लेकिन ज़िन्दगी इसी का नाम है कि आप जैसा चाहते है बिल्कुल वैसा तो कभी नही होता पुराने दोस्तो के साथ वक्त मजे मे ही गुजरा है लेकिन रिश्तों को निभाने के लिए जितना प्रेक्टिकल होना चाहिए या यूं कहूं कि व्यवहारिक भावुक होना चाहिए उतना मै कभी नही हो पाया और न ही लगता है कि कभी हो भी पाऊंगा।

एक सबक सीखा है कि बुरे वक्त मे दोस्त भी तल्ख हो जाते है जब उनका भी वक्त बुरा चल रहा हो तब महफिल की शान खामोशी बन जाती है अगर कुछ बोले तो जाना पहचाना ताना सुनने को मिल ही जाता है कि अभी दूनिया देखी कितनी है भईया। ऐसे मे सलाह भी नसीहत लगने लगती है।

जितनी गर्म जोशी से दिल्ली मे जाना हुआ था उतने ही अनमने मन से वापस आ गया हूं अपने एक मित्र के ब्रह्म ज्ञान के साथ कि अभी मैं बालक है भाई दूनियादारी को समझने के मामले मे...जिसे वे शिष्टाचार की चासनी मे लपेटकर मासूमियत भी कहतें है कई बार। हो सकता है कि उनका नजरिया ठीक हो लेकिन जिस अहसास और जिद आपके जीने की वजह बनी हो उसी के न होने का अहसास जब कोई करवाता है तब चोट तो लगती ही हैं।

अभी और परिपक्व होने का प्रशिक्षण लेने निकला हूं अब तक जो भोगा और जाना पहचाना वह तो हो गया है शून्य मेरी मासूमियत के कारण। दो बात अपने बारे मे पता चली जो नई तो नही है लेकिन सन्दर्भ जरुर नया है कि एक तो मेरा कोई दोस्त नही है बल्कि सभी प्रशसंक है प्रतिशत के रुप मे और दूसरी फिल्म अभी बाकी है मेरे दोस्त मेरे लिए लिखा गया डाय़लाग है।

इतनी हडबडी मे शहर छोडा है कि अपना नया हैंडलूम का तौलिया और चशमे का कवर बाक्स भी दोस्त के आशियाने पर छुट गया है जिसका अभी पता चला है। लगभग पांच घंटे निजामुद्दीन स्टेशन लावारिस की तरह काटने के बाद रात को 12 बजे रेलगाडी मे सवार हो कर आज सुबह 6 बजे देहरादून पहूंचा लेकिन जिनके लिए पहूंचा था मेल-मिलाप करने के लिए उनकी वाईब्रेशन मेरे दिल को पहले से ही ठीक नही लग रही थी लेकिन ज़िद करके जा रहा था और कहा जाता है ना कि जिस बात के लिए दिल गवाही न दे वह नही करनी चाहिए लेकिन मैने की क्योंकि आदत से मजबुर हूं ना।

अभी ट्रेन से उतर से इस असमंजस मे था कि किसके दर पर दस्तक दूं तभी एक एसएमएस आया और मैने उसी समय वापस हरिद्वार जाने वाली ट्रेन को भाग कर पकड लिया और वहाँ से वह डगर पकड ली जहाँ अभी तो कतई नही जाना था।

आज दोपहर खानाबदोशी के क्रम मे अपने गांव हथछोया मे आ गया हूं घर वालो के लिए उत्सव जैसा माहौल है मै अपने मे ही डूबा हुआ। गांव मे एक लोकोक्ति प्रचलित होती है अडी-भीड का यार मकन्दा मतलब (मित्र के रुप मे अंतिम विकल्प जो मुश्किल मे काम आए) मुझे बहुत प्रासंगिक लग रही है क्योंकि अब अपना कोई यार मकन्दा नही बचा है।

बहस,विवाद,नाराज़गी कोई नई बात नही होती है दोस्ती मे होनी भी चाहिए आखिर किस बात का अपनापन जो अपनी बात न कही जा सके लेकिन अभी भी जब अपने अज़ीज का दांत भीचते और आंखे तरेरते हुआ चेहरा याद करता हूं तो डर जाता हूं...। खैर बाते काफी निजी किस्म की होते हुए भी मै लिख रहा हूं क्योंकि मैने खानाबदोश शुरु करते हुए लिखा था अपने अनुभव ईमानदारी से बांटता चलूंगा सो ईमान की तकरीर तो यही है जो मैने पेश की है।

गांव आया हूं तो दो बात खेत की भी करता चलूं पिताजी ने बताया की बाग मे पुराना ट्यूबवैल का बोरिंग फेल होने के कारण नया बोरिंग करवाया जा रहा है जिसका तीसरे पहर महूर्त होगा और मुझे भी चलना है मै उनको बाईक पर बैठा कर खेत पर ले कर गया और महूर्त करने के लिए जो मिस्त्री द्वारा एक छोटी दिया-बाती वाली पूजा की गई उसमे मैने कौतूहलवश अपने छ्द्म संस्कृत ज्ञान का खुब तडका लगाया दो चार संस्कृत के मंत्रो का सस्वर पाठ किया, आखिर भई गुरुकुल का परास्नातक छात्र रहा हूं सो गांव मे थोडी बहुत पंडताई किस्म की भी छवि बन ही गई है भले ही वर्ण से क्षत्रिय हूं।

आज का लेखा-जोखा बस इतना ही अब कब तक यहाँ यह कह नही सकता एक और पुराने दोस्त आग्रह से कुरुक्षेत्र बुला रहे हैं लगता है कि अभी एक चोट और खाने की ख्वाहिश बाकी है...।

बिछड़े लोगों से मुलाक़ात कभी फिर होगी
दिल में उम्मीद तो काफ़ी है यक़ीं कुछ कम है (शहरयार)

डा.अजीत

Wednesday, May 19, 2010

पहला पडाव

घर से निकले थे हौसला करके लौट आए खुदा-खुदा करते....अभी ये गज़ल सुन रहा हूं बात दिल को छु जाती है शायर की... मै 17 को रात के लगभग 11.30 दिल्ली पहूंचा दिल वालो कि इस दिल्ली मे अपना आवारा दिल ले कर...अपने दो पुराने यार उसी गरम जोशी से मिले जैसे कभी पढतें वक्त हास्टल मे मिलते थे हाँ इस बार थोडी वक्त की गर्द जरुर चढ गयी है सभी के चेहरो पर...जिस मे मै भी शामिल हूं तीन दिन से यहा पूरी बेशर्मी के साथ बना हुआ हूं इस फिल्म के कथानक के सन्देश के साथ कि अतिथि तुम कब जाओगें।
दोस्त के लिए मै अतिथि नही हूं लेकिन दोस्त का अपना एक परिवार भी तो है और यह हर कोई नही समझ सकता है कि बिना काम के भी बेवजह खाली मेल मिलाप के लिए कोई घर से झोला उठाये घुम रहा है इतना खाली होना आज के वक्त मे कोई अच्छी बात नही है। सुबह का खाना खाकर अपने खबरिया चैलन के खबरनवीस मित्र बाईट लेने निकल जाते है एक मैं और मेरे एक दोस्त बकौल उनके सितारे आजकल गर्दिश मे है दिन भर भटकते है गली-दर-गली और कभी.....तन्हाई के मारे पार्को मे जा कर बेवजह बहस करते रहते हैं...।
बातों, वादों का दौर लगभग समाप्त हो गया है और आज रात को 12 बजे मुझे निकलना है देहरादून के लिए वहाँ भी दो शुभचिंतक प्रतिक्षा मे है मुझे ऐसा लगता है बाकी तो उन्हे ही पता होगा...। सो अब अलविदा दिल्ली और मै जा रहा हूं देहरादून....वहाँ के किस्से वहाँ जाने के बाद....
डा.अजीत

Friday, May 14, 2010

एक अंत नई शुरुवात के लिए

आज का दिन वैसे तो सामान्य ही है लेकिन एक अलग बात आज यह है कि आज से मेरे विश्वविद्यालय मे ग्रीष्मकालीन अवकाश की घोषणा हो गई है अब नया शैक्षणिक सत्र 15 जुलाई से आरम्भ होगा तब तक के लिए मैने आज अपने प्राध्यापक ,मनोवैज्ञानिक और भी बहुत से लिबास उतास दिए है और आज दिगम्बर चेतना के साथ आपसे रु-ब-रु हूं।

रुटीन ज़िन्दगी मे एक बदलाव आ रहा है कल से अब न कोई लेक्चर होगा और न कोई बोझिल अकादमिक काम अब कुछ होगा तो केवल खानाबदोशी जिसका उत्सव मेरा घुमक्कड मन मना रहा हैं।

यारबाज़ मन अपना हमेशा से ही रहा है सो इस नयी यात्रा के शुरुवात भी अपने कुछ पुराने दोस्तो से मिलने के क्रम से हो रही है मै जा रहा हूं दिल्ली जिसे मेरे एक मित्र विक्टर्स की सिटी भी कहते है उसी विक्टर्स की सिटी मे मै भगौडा भी जा रहा हूं शायद अपने आप से भाग कर अतीत के उन सुनहरे दरख्तों की छांव मे सुस्ताने के लिए जो वक्त की गर्द से बुझे हुए से लेकिन शान से खडे नज़र आते है।

दिल्ली मे अपने दो पुराने यार संयोग से साथ ही रह रहे है आजकल, और इस त्रिमूर्ति की तीसरी मूर्ति मै 17 को पहूंच रहा हूं। फिल्मो की भाषा मे कहूं तो थ्री इडियटस फिर से मिलेंगे अपनी ढपली अपना राग लेकर।

कभी साथ मिलकर कुछ बडा करना था अभी क्या करना है ये पता नही....।

बहुत दिनो बाद ये एतिहासिक मिलन हो रहा है सो इसके लिए मै खासा उत्साहित भी हूं। मुलाकात के बाद शायद मै उदास हो जाऊं या मलाल करुं वक्त के हसीन मज़ाक का लेकिन अभी बस इतना ही शेष जो भी होगा उसके संपादित अंश मै जरुर डालूंगा क्योंकि आप सभी जानते है पुराने दोस्त जब मिलते है तब क्या-क्या होता है....!

शेष फिर...

डा.अजीत

Tuesday, May 11, 2010

अवारगी

रात तो वक्त की पैबन्द है ढल जाएगी

देखना ये है कि चरागो का सफर कितना है....

बात यही से शुरु करता हूं सफर मे अपनी दास्तान पहले से ही रही है चाहे यह सफर जिस्मानी रहा हो या रुहानी। कभी इतिहास की किताबों मे पढा था कि लोग सभ्यता विकसित होने से पहले खानाबदोश रहा करते थे तब भी इस शब्द ने आकर्षित किया था और अब तो जीने के वजह बनता जा रहा है।

आमतौर पर अवारगी को दूनियादारी के लोग ठीक नही मानतें है लेकिन मुझे हमेशा से एक खास तरह का सुख मिलता है इस बिना मंजिल की भटकन में...।

देखा जाए तो दूनिया हर वक्त सफर मे ही है लेकिन जब यात्रा अपने साथ शुरु हो जाती है तब बहुत से प्रश्नवाचक चिन्हों को एक पूर्ण विराम मिल जाता है।

विश्वविद्यालय मे मास्टरी करते-करते और दूनिया भर की पीडा को अपनी कविता मे जीते-जीते एक खास तरह का ठहराव सा जीवन मे आ गया था सो मैने इस बार सोचा है कि एक बार फिर बिना नियोजन के और स्थान तय किए ही निकला जाए,इस बाह्य यात्रा का प्रभाव आंतरिक यात्रा पर जरुर पडेगा ऐसा मेरा विश्वास है।

जब अपने कुछ अभिन्न मित्रों को अपनी इस प्रस्तावित यात्रा के बारे मे बताया तो कुछ ने हौसला अफज़ाई की कुछ ने साक्षी भाव से सुन कर अनसुना कर दिया। एकाध ने साथ चलने की भी जिज्ञासा जाहिर की थी लेकिन जैसे जैसे इस यात्रा का समय निकट आता जा रहा है वें इस विषय पर बात करने से बचते जा रहें है जिसका संदेश मै समझ रहा हूं,लेकिन ऐसा भी नही है कि मुझे किसी से कुछ शिकायत हो सबके अपने-अपने दूनियादारी के काम है और जिम्मेदारियां है।

खुद मेरी पत्नि ने मेरी इस यात्रा के विषय मे एक फिलास्फीकल मौन बनाया हुआ है पता नही है वो खुश है कि नाराज़ फिर मुझे लगता है कि आप सभी को खुश नही रख सकतें है किसी न किसी को तो ज़िन्दगी भर शिकवे-शिकायत बने ही रहने हैं।

खानाबदोश ब्लाग बनाने के पीछे भी यही एक प्ररेणा रही है कि मेरा कांरवा जिस-जिस जगह से गुजरेगा उसकी एक झलक आप सभी तक पहूंचती रहे मेरे माध्यम से क्योंकि बहुत से लोगो की यह जिज्ञासा बनी हुई है कि मै आखिर जा कहाँ रहा हूं...।

कुछ भी तय नही है ना मंजिल न रास्ते आज ही एक बैग खरीद कर लाया हूं संभवत: 17 मई की सुबह घर छोड दूंगा और बस स्टैंड पर जाकर ही फैसला होगा कि किस दिशा ने खानाबदोशी होगी... हो सकता है कि हिमालय के कन्द्राओं में वक्त गुजरे !

सो आप मेरी इस अवारगी का लुत्फ ले सकते है अनुभव और अनुभूति जैसी भी होगी मै कोशिस करुंगा कि आपके साथ ईमानदारी से बांटता चलूं.....।

अब इज़ाजत चाहूंगा हो सकता है कि जाने से पहले एकाध पोस्ट और लिखूं लेकिन यात्रा के दौरान नियमित लेखन होता रहे ऐसा मेरा प्रयास रहेगा।

एक शेर अपने उन दोस्तों के लिए अक्सर मेरी अवारगी पर तनकीद(समीक्षा) करतें रहतें हैं...

सफर मे बेखबर रहने से बढ कर गुमरही क्या हो

कोई ठोकर लगाए तो बडा एहसान करता है...। (वसीम बरेलवी)

आपका

डा.अजीत