जाने क्या ढूडें मन बावरा...यही एक सवाल अक्सर अपने आप करता हूं कि किस कस्तूरी की तलाश मे यह अधुरेपन का मसला हल नही होता है, बेसबब मन उडान भरता रहता है ज़ज्बातों के पंख लेकर कभी अपनेपन की तलाश मे कभी अपने होने की ज़िद मे...। वजूद के अहसास मे ख्वाहिशों की मिलावट फकीरी करने का हौसला देती है लेकिन कहते कि फक्कडी करने के लिए अहसास से ख्वाहिशों को निचोडकर सुखाना पडता है खुद को...एक बार किसी मित्र के मित्र से सुना था जो एक आश्रम चलाते है कि..” जग देखने के लिए जोगी नही बना हूं बल्कि जग देखकर जोगी बना हूं..” बात सटीक लगी मुझे उनकी कि जग देखने के लिए क्या जोगी बनना? हाँ जग देखकर कोई भी संवेदनशील व्यक्ति जोगी बन सकता है क्योंकि पग-पग पर इतना दिखावा,इतनी औपचारिकता और अभिनय की कभी कभी खुद के होने का अहसास के लिए भी टटोलना पडता है।
मन ऊब जाता है बेसबब उदासी कचोटती है जिन्दगी एक सफर है लेकिन हमसफर कोई नही मिलता है चलना है सभी को तन्हाई मे तन्हाई के साथ..।
हो सकता है कि यह सब बातें उस निर्वात की यात्रा से छ्नकर आती एक धुन्धली तलछ्ट हो जिससे रिसता दर्द एक अजीब से अहसास से भर देता है और मै अक्सर अपनेपन की परिभाषा तलाशता फिरता हूं दर-बदर।
अभी दार्शनिक मित्र मुकेश यादव जी ने सलाह दी है कि अनजाने ठिकानो पर भटकना चाहिए तभी मन के आंतरिक बन्धन टूटेंगे और शायद वह उर्जा भी जिसकी तलाश भी है इस खानाबदोशी का एक मकसद यह भी है कि फिलहाल मै जीवन के उस दोराहे पर खडा हूं जहाँ मुझे एक बडा निर्णय लेना है जो मेरे जीवन की दशा और दिशा तय करेगा उसी दुस्साहसिक निर्णय के लिए साहस और उर्जा जुटाने का स्वार्थ लेकर निकला हूं..।
जाने पहचाने लोग और इन जगहो पर अपने लोग अपनी अपेक्षा और छवियों के साथ जीते हुए मिलते है ऐसे मे कुछ नयेपन की उम्मीद करना बेमानी ही है...।
एक बार फिर खुद को समेटता हुआ निकलने की तैयारी मे हूं शायद कल या फिर परसो कहाँ के लिए इसका मुझे भी अभी तक पता नही है...।
डा.अजीत