Tuesday, May 11, 2010

अवारगी

रात तो वक्त की पैबन्द है ढल जाएगी

देखना ये है कि चरागो का सफर कितना है....

बात यही से शुरु करता हूं सफर मे अपनी दास्तान पहले से ही रही है चाहे यह सफर जिस्मानी रहा हो या रुहानी। कभी इतिहास की किताबों मे पढा था कि लोग सभ्यता विकसित होने से पहले खानाबदोश रहा करते थे तब भी इस शब्द ने आकर्षित किया था और अब तो जीने के वजह बनता जा रहा है।

आमतौर पर अवारगी को दूनियादारी के लोग ठीक नही मानतें है लेकिन मुझे हमेशा से एक खास तरह का सुख मिलता है इस बिना मंजिल की भटकन में...।

देखा जाए तो दूनिया हर वक्त सफर मे ही है लेकिन जब यात्रा अपने साथ शुरु हो जाती है तब बहुत से प्रश्नवाचक चिन्हों को एक पूर्ण विराम मिल जाता है।

विश्वविद्यालय मे मास्टरी करते-करते और दूनिया भर की पीडा को अपनी कविता मे जीते-जीते एक खास तरह का ठहराव सा जीवन मे आ गया था सो मैने इस बार सोचा है कि एक बार फिर बिना नियोजन के और स्थान तय किए ही निकला जाए,इस बाह्य यात्रा का प्रभाव आंतरिक यात्रा पर जरुर पडेगा ऐसा मेरा विश्वास है।

जब अपने कुछ अभिन्न मित्रों को अपनी इस प्रस्तावित यात्रा के बारे मे बताया तो कुछ ने हौसला अफज़ाई की कुछ ने साक्षी भाव से सुन कर अनसुना कर दिया। एकाध ने साथ चलने की भी जिज्ञासा जाहिर की थी लेकिन जैसे जैसे इस यात्रा का समय निकट आता जा रहा है वें इस विषय पर बात करने से बचते जा रहें है जिसका संदेश मै समझ रहा हूं,लेकिन ऐसा भी नही है कि मुझे किसी से कुछ शिकायत हो सबके अपने-अपने दूनियादारी के काम है और जिम्मेदारियां है।

खुद मेरी पत्नि ने मेरी इस यात्रा के विषय मे एक फिलास्फीकल मौन बनाया हुआ है पता नही है वो खुश है कि नाराज़ फिर मुझे लगता है कि आप सभी को खुश नही रख सकतें है किसी न किसी को तो ज़िन्दगी भर शिकवे-शिकायत बने ही रहने हैं।

खानाबदोश ब्लाग बनाने के पीछे भी यही एक प्ररेणा रही है कि मेरा कांरवा जिस-जिस जगह से गुजरेगा उसकी एक झलक आप सभी तक पहूंचती रहे मेरे माध्यम से क्योंकि बहुत से लोगो की यह जिज्ञासा बनी हुई है कि मै आखिर जा कहाँ रहा हूं...।

कुछ भी तय नही है ना मंजिल न रास्ते आज ही एक बैग खरीद कर लाया हूं संभवत: 17 मई की सुबह घर छोड दूंगा और बस स्टैंड पर जाकर ही फैसला होगा कि किस दिशा ने खानाबदोशी होगी... हो सकता है कि हिमालय के कन्द्राओं में वक्त गुजरे !

सो आप मेरी इस अवारगी का लुत्फ ले सकते है अनुभव और अनुभूति जैसी भी होगी मै कोशिस करुंगा कि आपके साथ ईमानदारी से बांटता चलूं.....।

अब इज़ाजत चाहूंगा हो सकता है कि जाने से पहले एकाध पोस्ट और लिखूं लेकिन यात्रा के दौरान नियमित लेखन होता रहे ऐसा मेरा प्रयास रहेगा।

एक शेर अपने उन दोस्तों के लिए अक्सर मेरी अवारगी पर तनकीद(समीक्षा) करतें रहतें हैं...

सफर मे बेखबर रहने से बढ कर गुमरही क्या हो

कोई ठोकर लगाए तो बडा एहसान करता है...। (वसीम बरेलवी)

आपका

डा.अजीत

6 comments:

  1. प्रथम और अंतिम पंक्तिया सुन्दर ..लाये

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  2. Shuruaat ke liye shubhkamnaey

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  3. स्वागत है आपका हिंदी ब्लॉग्गिंग में....

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  4. बहुत ही शानदार आलेख.........

    हार्दिक शुभ कामनाएं

    -अलबेला खत्री

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  5. bahut badhiya content ke sath apka blog avtarit hua hai. shubhaknaiyen.

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  6. कोई ठोकर लगाए तो बडा एहसान करता है

    वाह क्या बात है, ठोकरें सच्ची मार्गदर्शक होती हैं

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