Friday, July 9, 2010

अम्बाला- देहरादून

सामने ही अम्बाला कैंट का रेलवे स्टेशन है तभी एक विचार आया कि हो सकता है कि कोई ट्रेन मिल जाए फिर जितनी थकान हो रही थी उसमे रेलयात्रा एक अच्छा विकल्प था। रेलवे पूछताछ पर पता चला कि लगभग आधे-एक घंटे के बाद हेमकुंट एक्सप्रेस जाएगी।हमने टिकिट लिया और रेल की प्रतिक्षा करने लगे। जैसे ही ट्रेन आई पता नही कहाँ से इतनी भीड चढने के लिए खडी हो गई जोकि पहले प्लेटफार्म पर दिखाई भी नही दे रही थी।टिकट के नियमानुसार हम जनरल डिब्बे मे चढने का प्रयास करने लगे लेकिन जो भीड अंदर थी उसे देखकर हमारे तरपण(रोम-रोम )कांप गये। किसी तरह अपने दैत्याकार काया से जगह बनाता हुआ बूढों और महिलाओं को धकियाता हुआ मै चढ तो गया और सुशील जी को भी चढा लिया लेकिन अन्दर तो लोग टायलेट के बाहर तक चिपके हुए थे। ऐसा लगा किस नरक मे आ गये है फिर मैने निर्णय लिया कि इस जनरल डिब्बे मे एक पैर पर खडा होकर किसी भी हालत मे नही जाया जा सकता फिर उतरने की मुसीबत लोग पीछे भी सेट हो गये थे किसी तरह से मैने अधकचरी पंजाबी भाषा मे बोलते हुए आग्रह किया ओय वीर जी असानूं उतरणा है..तब जाकर किसी तरह उतरे।

मैने सुशील जी से कहा कि आप किसी टीटीई से बात करके देखो और उसको बताओं कि हम दो पत्रकार लोग अगर किसी स्लीपर चढने की अनुमति मिल जाए तो सहारनपुर तक आराम से जाया जा सकता है लेकिन उन्होने मेरे प्रस्ताव मे कुछ खास रुचि नही दिखाई शायद यह थकावट और बस की घटना का असर था जिससे वें उभर नही पा रहे थें।

फिर मैने ही तीने काले कोट(टीटीई) वालो को पकडा और कहा सर, हम दो जर्नलिस्ट लोग है सहारनपुर तक जाना है किसी स्लीपर कोच मे व्यवस्था हो सकती है क्या? उनमे से दो ने अपने हाथ खडे कर दिए फिर एक ने कहा कि टिक़िट दिखाओं मैने झट से टिकिट दिखा दिया मुझे लगा कि यह पत्रकार होने के नाते हमारा लिहाज़ कर रहा है और व्यवस्था कर देगा लेकिन अगले ही पल उसने कहा लाओ सौ रुपये! हालांकि उस वक्त हालत यह थी कि अगर वह दौ सो भी मांगता तो हम दे देते, मैने तुरंत उसको सौ रुपये बतौर सुविधा शुल्क के दिए तब उसने कहा एस-1 मे खडे हो जाओं जाकर...।ट्रेन की भीड देखकर खडे होने की सुविधा भी बडी लग रही थी, लेकिन थोडा अजीब भी लगा जो टीटीई एक पत्रकार का परिचय देने के बाद भी बेशर्मी से सौ रुपये की रिश्वत ले सकता है वो एक आम आदमी से क्या-क्या वसूलता होगा। उसने टिक़िट पर अपनी कलम से कुछ लाईने खींची जिसका कोड वर्ड की भाषा मे यह अर्थ था कि कम लोग उनकी सेवा कर चूके है अगर कोई दूसरा टीटीई भी देखेंगा तो उसकी समझ मे आ जाएगा और वो फिर निर्बाध यात्रा करने देगा। आप भी सुविधा शुल्क और कोड वर्ड से युक्त टिकिट देख सकें इसलिए वह टिक़िट मे नीचे डाल रहा हूं।


खैर..एस-1 कोच का नज़ारा ही दूसरा था सब गहरी निन्द्रा मे लीन थे, एक भी सीट खाली नही थी पुरुष,महिलाएं,बच्चे और बूढे सभी वर्ग के यात्री साधिकार आरक्षण की यात्रा का आनंद ले रहे थे फिर वो वक्त भी गहरी नींद का था। जिन महिलाओं के पास थोडी बहुत बैठने की जगह बन सकती थी उनकी लेटने की मुद्रा इतनी असहज़ और अस्त-व्यस्त किस्म की थी कि बैठने की हिम्मत ही नही हुई यह डर लगा रहा पता नही किस पल ये हमे बैठा देखकर चीख पडे और इनके स्वामी हमारी सामूहिक सेवा कर दें।

बडे बेबस और लाचार पूरे कोच मे घुमते रहे फिर मैने अचानक देखा कि एक छोटी लडकी साईड लोअर सीट पर सिकुडी हुई लेटी हुई थी वहाँ पर धृष्टतापूर्वक सुशील जी बैठा दिया तथा अपना लेपटाप उपर रख दिया,थोडी देर बाद मैने देखा एक माताजी बिल्कुल सुशील जी के करीब खडी जिसको हमने पहले तो अपनी श्रेणी का समझा लेकिन वो कुछ ज्यादा ही संकोच कर रही थी खडे होने मे भी जिसके कारण सुशील जी ने उससे पूछ लिया कि आपको कहाँ तक जाना है तब उस बेचारी ने बडी शालीनता से बताया कि सुशील जी जहाँ बैठे हुए है दरअसल उसकी सीट है वो अभी थोडी देर पहले टायलेट गई थी लौटी तो सुशील जी को बैठा पाया,यह सुनकर हम झेंप गये और सुशील जी ने सीट खाली कर दी लेकिन उस माताजी ने अपनी उदारता का परिचय देते हुए सुशील जी को बैठने के लिए एक जरा सा कोना दे दिया। मैं थोडी देर खडा रहा लेकिन मेरे भी पैरो मे खुन उतर रहा था फिर मैने भी वही पर एक लोअर बर्थ पर बिल्कुल मामूली सी जगह पर अपना पिछवाडा टेक दिया हालांकि मै फिसल रहा था और लम्बाई के कारण बीच मे सिर भी नही आ रहा था,लेकिन विकल्प न होने की दशा मे एडजस्ट हो गया।

हमे बैठे अभी थोडी ही देर हुई थी एक मद्रासी टाईप का आदमी चिल्लाया,अरे भागा! चैन खींच कर भागा! तब हमे पता लगा कि कोई चोर उसकी सोने के चैन खींच कर ट्रेन से कूद गया है...थोडी देर मे वो भी शांत हो गया किसी ने भी न उससे पूछा और न ही सांत्वना ही दी...। इस घटना पर सुशील जी ने टिप्पणी की कि एक पुरुष को जरुरत ही क्या है आभूषण के साथ यात्रा करने की..मैं भी उनसे सहमत था।

इसी बीच वही टीटीई आया और उसने हमारा हाल-चाल जानने के लिए हमे साहब के सम्बोधन से सम्बोधित किया और बताया कि वह कैसे यात्रियों की सुविधा का ख्याल करता है 100 रुपये लेकर वरना अगर पर्ची कटे तो 300 से कम की नही कटेगी उसके इस जस्टीफिकेशन हमने कोई रुचि नही दिखाई हाँ उसको औपचारिक रुप से धन्यवाद जरुर कहा कोच मे खडे होने की अनुमति देने के लिए..।

जिस बर्थ पर मै बैठा हुआ था उस पर लेटे आदमी को अपने वजूद का जल्दी ही अहसास होने लगा फिर उसने आरक्षण अपनी सुविधा के लिए करवाया था किसी मेरे जैसे आदमकद के लिए तो बिल्कुल नही...वो कभी अपने पैर चौडे करके फैलाने का प्रयास करे कभी मेरे पिछवाडे पर पैर मारे और नींद मे बडबडाने का अभिनय करता हुआ मेरे वहाँ बैठने पर उसको हो रही असुविधा का प्रतिकार करें।

सुशील जी भी केवल एक नुकीले भाग पर बैठे हुए थे उनका पिछवाडा बिल्कुल माताजी के मुहँ के पास था जिसे देखकर मुझे हँसी भी आ रही थी और दया भी। सुशील जी ने मुझसे कहा कि जिस सीट पर मै बैठा हुआ हूं उस पर लेटे हुए आदमी से आग्रह की मुद्रा मे अपनी समस्या बता दूं लेकिन मेरा साहस नही हुआ और मैं बेशर्मी से बैठा रहा...।

थोडी देर मे भाषाई नजदीकी काम आई संयोग से वह आदमी रुडकी का रहने वाला था और सपरिवार वैष्णों देवी के दर्शन करके आ रहा था और जब मैने कहा कि मै हरिद्वार का रहने वाला हूं तो उसने अपने ठोकर वाले पैर समेट लिए और कहा कि भईया भीड मे तो एडजस्ट करना ही पडता है।

जैसे तैसे दिन निकल गया और हम सहारनपुर पहूंच गये..जब हम लोग ट्रेन से उतर कर बाहर जा रहे थे तब उसी टीटीई ने फिर से सेल्यूट करते हुए सलाम किया बस उसकी एक यही अदा हमे पसंद आई और लगा पैसे वसूल हो गये और एक यही वजह भी है मैने इस पोस्ट मे उसका नाम नही डाला है वरना मै पहले मन बना चूका था कि जब इस यात्रा के बारे मे लिखुंगा इसका नाम जरुर डालूंगा..।

यहाँ रेलवे स्टेशन से बाहर निकल हमने उत्तराखण्ड रोडवेज़ की बस पकड ली जिस समय मै लैगेज़ बाक्स मे अपना बैग ठूंस रहा था तब मुझे एक झटका लगा और मैने सुशील जी को बताया कि मेरी ज़िम लेकर जाने वाले कोल्ड थर्मोस्टेट की पानी की बोतल बैग की साईड वाली जेब से कही रास्ते मे निकल गई जिस पर मेरे बेटे का भी दिल आया हुआ था और मेरे घर से चलते वक्त पत्नि ने भविष्यवाणी भी की थी कि आप जब वापस लौटेंगे तो पक्का रह बोतल खोकर लौटेंगे। उसकी भविष्यवाणी सही सिद्द हुई मुझे थोडा दुख भी हुआ क्योंकि इस बार यह बोतल मेरा बेटा अपने स्कूल मे ले जाने वाला था।

जैसे ही मैने अपने बोतल खोने की बात बताई तुरंत सुशील जी न कहा बोतल ही नही मेरा छाता भी खो गया है फिर जब हमने रिमाईंड करने की कोशिस की तो पता चला कि छाता हरियाणा रोडवेज़ की बस मे छूटा और मेरी बोतल उस वक्त निकली जब हम हेमकुंट एक्सप्रेस के जनरल कोच मे धक्का-मुक्का करते हुए चढे थे...।

खैर जो गया सो गया लेकिन बहुत देर तक मलाल रहा दोनो चीज़ो के खो जाने का...।

सुशील जी चूंकि मान्यता प्राप्त पत्रकार है सो उन्होने बस कंडक्टर को अपना पास दिखाया और मेरा टिकिट लिया देहरादून तक का...थोडा सा भाव इस कंडक्टर ने भी खाया पास देखकर और उसको अलट-पलट कर ऐसा देखा जैसाकि वह खुद सूचना विभाग का निदेशक हो या परिवहन विभाग का महाप्रबन्धक...। हम इस बार कोई बहस नही करना चाहते थे अच्छी बात यह रही कि उसने वाद-विवाद नही किया अपने साथ पास को ले गया और थोडी देर मे लौटा दिया।

रास्ते मे पुलिस,दूकानदार,कंडक्टर,शराबी जैसे विषयो पर हमारी चर्चा होती रही और बातों बातों मे देहरादून आ गया।

देहरादून पहूंचने से पहले ही मैने अपने मित्र मनोज अनुरागी जी को एक एसएमएस कर दिया था कि मै 7 बजे तक पहूंच जाउंगा। सुशील जी ने अपनी एक्टिवा आईएसबीटी पर ही पार्क की हुई थी,उनकी थकान देखकर मेरा साहस नही हुआ कि मै उनको यह कह सकूं कि आप मुझे अनुरागी जी घर तक छोड दें। बाद मे यह बीच का रास्ता निकाला गया कि आधे रास्ते तक अनुरागी जी को बुला लिया जाए और आधे रास्ते तक सुशील जी मुझे ड्राप कर देंगे।

सुशील जी ने मुझे देहरादून प्रेस क्लब छोडा और यही थोडी देर बाद अनुरागी जी मुझे लेने आ गये। अनुरागी के साथ घर पर चाय पी गई और फ्रेश होने के बाद मैने कहाँ कि अब मुझे सोना है उन्हे भी अपने आफिस जाना था सो तय यह हुआ कि वो मेरा खाना बना कर रसोई मे छोड कर चले जाएंगे जब मेरी आंख खुलेगी मै खा लूंगा।

हालांकि वो अवस्था मे मुझ से बडे है लेकिन मेरा सम्मान बहुत करते है वो उन चंद लोगो मे से शुमार जिनके मुंह से मुझे डाक्टर साहब सुनना अच्छा लगता है फिर मैने धृष्टता के साथ अनुरागी जी से अनुरोध किया कि मेरा बैग़ मैले कपडो से भरा हुआ वो जब अपने आफिस जाएं इसको किसी धोबी के यहाँ डालते हुए चले जाए यह कहकर कि शाम को धुले हुए चाहिए....मै तो तुरन्त सो गया और उन्होने वैसा की किया जैसा मैने अनुरोध किया था।

दिन मे 12 बजे के करीब मेरी नींद भुख की वजह से खुली तब मैने रसोई मे जा कर देखा कि कुछ खाने के लिए है क्या? अनुरागी जी बडे प्रेमपूर्वक मेरे लिए बैगन का भर्ता और रोटियां बना कर आफिस गये थे मैने उनका भोग लगाया और फिर सो गया।

आज केवल थकान मिटाई गई और खुद को रिचार्ज़ किया गया क्योंकि कल फिर मुझे और सुशील जी को एक नई खानाबदोशी और अवारागर्दी के निकलना है इस बार अपनी मंजिल रहेगी हेमकुंड साहिब और फूलों की घाटी....।

अब यात्रा का एक पूर्ण विराम....अगली यात्रा की किस्सागोई अगली बार..।

डा.अजीत

4 comments:

  1. आपने यात्रा का बिल्‍कुल सजीव वर्णन किया है !!

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  2. Abhivyekti achhi hai...Isi liye yatra, ek sadhna hai...her halet mai Imandar bene rehna thoda muskil kaam hai, thode hi log hai jo is kesoti per khere uterte hain, lekin ek baar sankelp kerlo to Raha ben jati hai...Apni suvidha ke liye suvidha sulk dene or lene valo ki bheed here jeghe dikhai dete hai, train mai bhi or buso mai bhi!

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  3. मैं एक महीने के लिए छुट्टी पर गयी थी इसलिए आपके ब्लॉग पर आ नहीं सकी!

    बहुत बढ़िया लिखा है आपने! उम्दा प्रस्तुती!

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  4. डॉक्टर साहब, आपने तो अम्बाला से सहारनपुर तक 82 किलोमीटर का सफर बहुत मुश्किलों से तय किया। ऐसे में आपको एक तरीका बताता हूं। बैग तो होता ही होगा साथ में। उसमें एक चादर भी रखा करें। चादर ना हो तो दो-तीन रुपये का अखबार आता है, उसे रखें। ट्रेन रुकते ही धडधडाते हुए स्लीपर में घुसें और किन्हीं भी दो लोवर बर्थ के बीच में चादर या अखबार बिछाओ और फैल जाओ। सुबह होने तक बेशर्मी से पडे रहो। गारण्टी से कह रहा हूं कि कोई टीटी नहीं टोकेगा। हां, किसी को भी अपनी पहचान मत बताना। अरे भाई, कहां तो रात को जनरल में खडे होने की भी जगह नहीं मिलती और कहां अब स्लीपर में सोते हुए जा रहे हो।
    मैं तो ऐसा ही करता हूं।

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