Sunday, July 4, 2010

शिमला: आखिरी दिन-दो

(कुछ बुद्दिजीवि मित्रों जिनमे लेखक,पत्रकार और चिंतक शामिल है ने यह सुझाव दिया है कि खानाबदोश पर लेखन सूचना प्रधान होता जा रहा और थोडा विस्तार भी ज्यादा है जिससे रोचकता प्रभावित होती है,उनका कहना है कि बात काम्पैक्ट ढंग से कही जाए जिसमे रोचकता का तडका लगा हो...कभी-कभी मुझे भी ऐसा लगने लगता है कि मै कुछ ज्यादा ही बडी-बडी पोस्ट लिख रहा हूं,मै सभी मित्रो के सुझावो,प्रतिक्रियाओं का स्वागत करता हूं लेकिन मुझे ऐसा भी लगता है कि खानाबदोश पर लेखन का उद्देश्य किंचित भी अपनी फक्कडी को महिमामंडित करने का नही था और न ही यह एक तकनीकि रुप यात्रावृत लेखन का ब्लाग है फिर ब्लाग की मूल अवधारणा यही है कि बिना संपादन के जैसा आप महसूस करे ज्यों का त्यों लिख सकते है।यदि मै अपने यात्रावृतांत मे इस लम्बी शैली मे न व्यक्त करुं तो मुझे यह संताप लगा रहेगा कि बहुत कुछ छूट गया है। और सबसे बडी बात मै गागर मे सागर भरने वाली कला भी तो नही जानता हूं, फिर भी ईमानदारी से प्रयास करुंगा कि आपको लेखन बोझिल न लगे..।)

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...अब बस कुछ ही घंटो का वक्त बचा था शिमला मे क्योंकि हम को आज रात को देहरादून के लिए वापसी पकडनी है कार्यक्रम कुछ इस तरह से बना है कि मै और सुशील जी आज वापस देहरादून लौट रहे है हमे एक दिन विश्राम करके खुद को रिचार्ज करना है और उसके अगले दिन हम अपनी नई यात्रा शुरु करेंगे जोकि हेमकुंड साहिब और फूलो की घाटी की होगी जिसके रोमांच को फील करके मै शिमला के वियोग को भुलने की कोशिस कर रहा हूं। मुकेश जी अभी एक दिन और शिमला मे रुकेंगे और फिर दिल्ली जाएंगे वहाँ पर उनका आध्यात्मिक विषयक परिसंवाद का कार्यक्रम है हालांकि हमने उनसे एक साधिकार भावुक आग्रह किया कि हमारे साथ हेमकुंड की तरफ चलें क्योंकि हमारी तीनो की तिकडी की एक खास किस्म की आपसी मौन समझ है जिससे सफर मे आसानी रहती है लेकिन उनका कार्यक्रम पहले से ही तय था सो उन्होने विनम्रतापूर्वक मना कर दिया।

बात वही शुरु करता हू जिस रेस्त्रां की सीढियों पर हम बारिश के कम होने का इंतजार कर रहे थे वहाँ हमे खडे हुए तकरीबन आधा घंटा हो गया था तभी बारिश थोडी कम हुई तो हम लोग यहा से निकल पडे हल्की-हल्की बून्दों मे भीगते हुए जा रहे थे तभी फिर से अचानक बारिश तेज़ हो गई मुकेश जी ने उपर की तरफ इशारा करते हुए कहा कि वहाँ शिमला की पब्लिक लाईब्रेरी है वहाँ चलते है बारिश से भी बच जाएंगे साथ ही अखबार भी बांच लेंगे।

भागकर लाईब्रेरी मे घुसा गया अंदर एकदम सन्नाटा पसरा हुआ था लोग बडी ही गंभीरता से अखबार पढ रहे थे एक भी कुर्सी खाली नही थी हमने एक कोने मे अपने लिए जगह बनाई मै और मुकेश जी साथ बैठ गये सुशील जी थोडा आगे जाके शिफ्ट हो गये। यहाँ मैने तहलका मैग्जीन के एक-दो पुराने अंक उठा लिए और ऐसे सी पलट-पलट कर देखने लगा,उसमे एक अच्छी स्टोरी मैने पढी जोकि भारत मे मानसिक रोगियों की स्थिति एवं उनके उपचार के विषय पर थी चूंकि मेरा भी थोडा बहुत ताल्लुक मनोविज्ञान से है सो अच्छी लगी,मुकेश जी ने तहलका मे प्रकाशित होने वाले उनके प्रिय स्तम्भ साईकोलोजिज़ के बारे मे बताया कि वे केवल इसके लिए तहलका पढते हैं।

मुकेश जी और सुशील जी के बारे मे तो कह नही सकता लेकिन लाईब्रेरी के अन्दर पसरे पाठकीय शिष्टाचार जिसमे मौन अपना तांडव कर रहा था और ओढी हुई गंभीरता अपने होने का उत्सव मना रही थी ऐसे माहौल मे मुझे बैचनी होने लगी थी फिर मै अपढ किस्म का आदमी ठहरा इतना पढने लिखने की मुझे आदत भी नही...तभी बारिश ने मेरे मन को ठीक ठीक समझा और अपने उत्सव विलाप को थोडा हल्का कर लिया जिसके बल पर हम तीनो ने लाईब्रेरी से विदाई ली और माल रोड पर पहूंच गये कदम खुद-ब-खुद रुम की तरफ बढ रहे थे क्योंकि रुम पर जाकर थोडा आराम करने के बाद हमको रात को निकलना भी था,रास्ते मे सुशील जी नेट पर कुछ काम किया मेल वगैरह चेक की हम उनकी प्रतिक्षा करते रहे तभी मुकेश जी ने शिमला छोडने की पीडा पर चासनी उडेलते हुए गुलाबजामुन खाने का प्रस्ताव रखा जो हमारे थके चेहरो पर मुस्कान की माफिक था।

ठंड मे गरम-गरम गुलाब जामुन खाने का मज़ा और ही है मेरा मन दो पीस लेने का था लेकिन फिर संकोच कर गया और फिर हम तीनो शिमला की मिठास के साथ आगे रुम की तरफ बढ चले, रास्ते मे विभिन्न विषयों पर बात होती रही, सुशील जी घटनाओं के विषय मे चर्चा करते समय मेरा मनोविश्लेषणात्मक वर्जन लिए बिना नही मानते सो उनके साथ विषय के प्रति एक अपडेटड आउटलुक के साथ चलना पडता है पता ही नही चलता कि मित्र सुशील कब जिज्ञासु पत्रकार सुशील बन जातें है यहाँ वसीम बरेलवी साहब का एक शेर मुझे याद आ रहा है,बिगडना भी हमारा कम जानो,तुम्हें कितना संभलना पड रहा है

रास्ते मे बहुत बार मै मौजूं के हिसाब से कुछ समसामयिक,प्रासंगिक और सारगर्भित शेर सुनाता रहता हू जिस पर सुशील जी दाद देते है पता नही मन से या मेरा मन रखने के लिए हालांकि मेरा अन्दाज़-ए-ब्याँ इतना अच्छा नही है ऐसा मेरे एक मित्र की पत्नि और मेरी भाभी जी का कहना है।

हम तीनो रुम पर पहूंच गये और पुनश्च: बख्तरबंद ढीले करके मात्र अधोवस्त्रो मे अपने-अपने लिहाफ मे पैक हो गये है, लेपटाप पर कुछ गानें सुने गये,देखे गये तभी अचानक मुझे न जाने क्या सुझी कि मैने सुशील जी से उनकी जन्म तिथि पूछी और कहा कि आज आपकी कुंडली बांचता हू जिसके लिए वे सहर्ष तैयार हो गये मुकेश जी भी कौतुहलवश समर्थन कर रहे थे जैसे किसी सभा मे किसी नये प्रस्ताव का एक प्रस्तावक होता है और एक उसका अनुमोदक,सो बस आप यूं मान लिजिए कि मैने कुंडली वाचन का प्रस्ताव रखा और मुकेश जी ने उसका अनुमोदन किया।

बडी अज़ीब सी बात है कि मै लिखता कविता हूं,पढता कुछ भी नही,पढाता मनोविज्ञान हूं और शौकिया ज्योतिष मे हाथ आजमा लेता हू सो मैने सुशील जी को बता दिया कि ज्योतिष मे मेरी एप्रोच टिपिकल पंडताई वाली नही है बस कोशिस करता हूं कि ग्रहो की स्थिति और दशा-महादशा देखकर अपने अल्पज्ञान के साथ ठीक-ठीक विश्लेषण कर सकूं और कोशिस करता हूं कि मेरे कथन अनुमान पर आधारित न हो।

फिर मै जो बता सकता था वह उनको बताया जिसमे उनकी अतीत,भविष्य और स्ट्रेंथ से लेकर कमजोरी तक सबके विषय मे बडी बेबाकी से मैने अपनी बात कही जिससे वे सहमत भी थे और निष्कर्षत: उन्होने बताया कि मेने जो वचन,उद्घोषणा और निर्णय निर्धारण उनके विषय मे किए वे लगभग 95 प्रतिशत सही है यह सुनकर मुझे अच्छा लगा और सुशील जी के मुखारविंद से यह बात सुनकर मुझे कुछ ज्यादा ही अच्छा लगा क्योंकि एक बार लगभग दो साल पहले कुरुक्षेत्र से लौटते हुए मैने जिज्ञासावश सुशील जी से पूछा था कि क्या आप ज्योतिष पर विश्वास करते है? तब उन्होने अपनी वामपंथी वैचारिक पृष्टभूमि और तार्किक,बुद्दिवादी मन के बल से प्रेरित होकर एक बंकिम मुस्कान के साथ कहा था कि मै ऐसे किसी विषय पर विश्वास नही करता जो नितांत ही अनुमान पर आधारित हो!

इसके बाद मैने यह विषय वही बंद कर दिया था लेकिन आज शिमला मे सुशील की कुंडली बाचने पर उनकी स्वीकृति और फिर मेरे कथनो की पुष्टि से मेरा मन खुश हो गया। आज मैने न केवल सुशील जी की कुंडली बांची बल्कि उनकी बेटी की कुंडली का भी विश्लेषण किया जिसमे कई रोचक बात सामने आई।

शाम हो गई है इससे पहले आदतन सुशील जी ने आदतन एक नींद लेने की कोशिस की लेकिन कुछ वीवीआईपी किस्म के फोन आने के बाद वे उनके समीकरणों मे व्यस्त हो गये। अब वो घडी आ गई है जब हमे विदाई लेनी है मन भारी है और एक मोह सा हो गया है इस कमरे से भी...। ऐसी स्थिति मे मै थोडा कमजोर पड जाता हूं सो सुशील जी ने इनिशिएटिव लिया और बैग मे अपना सामान लगाने लगे जो मेरे लिए एक मौन संदेश था कि अब यहाँ से कूच की तैयारी करो...।

हम दोनो ने अंतिम दर्शन के रुप मे एक बार फ्रेश होने की भूमिका पूरी की और फिर सारा सामान पैक करके भारी मन से निकल पडे।

यही रास्ते मे वह हेरिटेज़ होटल पडता है जिसका नाम है Hotel Clarks,इसकी भी अपनी एक रोचक दास्तान है जो मुकेश जी ने मुझे बताई थी हुआ यूं था कि ओबराय ग्रुप के संस्थापक रायबहादुर मिस्टर मोहन सिंह अविभाजित पंजाब प्रांत से शिमला आए थे उन दिनो शिमला अंग्रेजी शासको की ग्रीष्मकालीन राजधानी हुआ करती थी। रायबहादुर मि.मोहन सिंह ने Hotel Ceicil मे पचास रुपये महीने की फ्रंट डेस्क क्लर्क की नौकरी शुरु की थी इस होटल के ब्रिटिश मालिक Ceicil मोहन सिंह की कार्यशैली और समर्पण भाव से बहुत प्रभावित थे।,कुछ वर्षो के बाद मिस्टर Clark ने Clark होटल खरीद लिया और मोहन सिंह ओबराय को इसके संचालन मे सहयोग करने के लिए कहा,1938 मे मोहन सिंह ओबराय ने अपने जीवन की पहली सम्पत्ति के रुप मे इस Clark होटल को खरीद लिया इसे खरीदने के लिए रायबहादुर मिस्टर मोहन सिंह ने अपनी पत्नि की सारी ज्वैलरी और अपना अन्य सामान गिरवी रख दिया था। अब होटल Cecil भी Hotel Cecil Oberio के नाम से जाना जाता है,क्योंकि बाद मे यह भी ओबराय ग्रुप ने खरीद लिया था। हेरीटेज़ होटल Clarks मे 500 मे कमरे है।वैसे तो अब यह विलासिता का प्रतीक है लेकिन मेरे जैसे मुंगेरीलाल को प्रेरणा भी देता है कि दुनिया मे कुछ भी असंभव नही है। इसी होटल के पास से सुशील जी ने भेलपूरी मिक्सचर टाईप की मूंगफली ली बिना मिर्च की और मैने मिर्च वाली जिसको खाते-खाते हम लोग चल पडे अब ज्यादा बातचीत नही हो रही थी बस एक दूसरे की उपस्थिति को महसूस करते हुए चल रहे थे। सुशील जी ने भेलपूरी मिक्सचर टाईप की मूंगफली ली बिना मिर्च की और मैने मिर्च वाली जिसको खाते-खाते हम लोग चल पडे अब ज्यादा बातचीत नही हो रही थी बस एक दूसरे की उपस्थिति को महसूस करते हुए चल रहे थे.

पत्नि के एक दिन पूर्व आग्रह पर सुशील ने ब्राउनी खरीदी हालांकि वो पहले यहाँ से नही ले जाना चाह रहे थे लेकिन जब हमने दबाव बनाया तो वें मान गये।

हम लोग लिफ्ट पर पहूंच गये है अब वो पल आ गया है जब ये तिकडी टूटने वाली थी मैने मुकेश जी को अपने भावुक क्षण बताए कि मैं जब कोई जब कोई जगह छोडता हूं एक अजीब सी पीडा होती है जिस पर उन्होने एक संक्षिप्त टिप्पणी की कि सावधान वैराग्य के समीप हो

बस इसके बाद हमने एक दूसरे से गले मिलकर विदाई ली और साथ बिताए अच्छे पलो को याद करते हुए भारी मन और रुंधे हुए गले से अपनी-अपनी राह पकड ली...।

सुशील जी लिफ्ट के लिए टिकिट की लाईन मे लग गये है और मै दूसरी लाईन मे लगा उनकी प्रतिक्षा कर रहा था..।

फिर यूं ही कभी चूप कभी दूनिया को गरियाते हुए हम दोनो बस स्टैंड पहूंच गये है..यहाँ से हरियाणा रोडवेज़ की बस मे बैठ गये,पहले नीचे कंडक्टर से पूछा कि भईया ये अंबाला जाएगी क्या वो पता नही किस बात से खुद से नाराज़ है या हमारी शक्ल उसको पसंद नही आई उसने कोई जवाब नही दिया फिर एक यात्री से पूछ कर हम बस मे चढ गये।

ठीक रात के 9 बजे बस शिमला से चल पडी है....अलविदा शिमला.. न जाने अब कब यहाँ दोबारा आना हो..!

रास्ते के सफर के अपने अलग किस्से है जिनका जिक्र अगली पोस्ट मे करुंगा...।

डा.अजीत

3 comments:

  1. aage ki yatra ke liye aap dono ko shubhkamnayen

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  2. बहुत अच्छा यात्रा वृतांत पढऩे को मिल रहा है। आगे जहां भी जाइएगा बताइएगा जरूर। मैं इंतजार कर रहा हूं। मेरी शुभकामनाएं।

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  3. Dr. Aloneji apne behud khoobsoorati se satya ki khoj mein aur apne antarman se batiyane ke liye nikalne ke bad ke apne anubhavon ke chiththe likhe hain..bda badhiya lga padhkar...lage rahiye Dr. Ajeet ji

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