जितना उत्साह किसी जगह पर जाने का होता है उतनी ही पीडा वहाँ से आने मे होती है...बस इसी एक अनमने से मन से मै और सुशील जी हरियाणा रोडवेज़ की बस मे बैठ गये जैसाकि मैने अपनी पहली पोस्ट मे जिक्र भी किया था इस बस के कंडक्टर का तेवर,कलेवर और फ्लेवर हमे ठीक नही लगा लेकिन इस चीज़ को बिसरा कर हम सवार हो लिए थे,अभी बस शिमला से निकली ही थी कि सुशील जी ने अपने पर्स से एवोमिन(उल्टी रोकने की दवाई) निकाली और ब्लेड से कुशल कारीगर की तरह आधी काटकर उसका सेवन कर लिया वो एक छोटा ब्लेड भी अपने साथ पर्स मे लेकर चलते है ये भी मुझे तभी पता चला कारण पूछा तो बताया कि यह टैबलेट हाथ से आधी तोडी नही जा सकती सो ब्लेड इस काम आता है। खैर ! उनके लिए यह आधी टैबलेट ही काफी थी जो उल्टी तो रोकती ही है साथ मे उनको नींद का भी सुख देती है,जबकि खासकर बस के सफर मे मुझे कभी नींद नही आती है और इस तरह की शामक दवाईयों का मुझ पर कोई खास असर भी नही होता है वजह अभी नही फिर कभी बताउंगा। बस पहाड के घुमावदार रास्ते पर चली जा रही थी और रात में बिजली की रोशनी मे शिमला का नज़ारा और भी विहंगम लग रहा था तभी अचानक ड्राईवर ने एक हाथ से बस का स्टैरिंग संभाला और एक हाथ से मोबाईल से बात करने लगा बातचीत से लग रहा था कि कुछ पैसो के लेन-देन का मामला है बस की अन्य सवारियां तो किन्नर भाव से यह देख रही थी जबकि वह सबकी जान के साथ खेल रहा था पहाडी रास्ते मे वो भी रात मे इस तरह से बस चलाना किसी भी दुर्घटना को निमंत्रण दे सकता है जबकि उस मूरख खलकामी के ठीक सामने मोटे-मोटे अक्षरों मे लिखा हुआ था कि ड्राईविंग के समय मोबाईल का प्रयोग न करें लेकिन वो बेखौफ नियमो को धता बता कर बातें किए जा रहा था,उसकी इस बेहूदी हरकत पर सुशील जी अपने पत्रकारिता के लहज़े मे सख्त आपत्ति जताई जिसकी थोडी देर बाद उसने फोन अपने कान से हटा लिया इसके बाद सुशील जी ने अपनी जैकट से अपने मूंह को ढका और मेरी बातो को लगभग आधे घंटे रोचकता के साथ सुना इसके बाद उनकी प्रतिक्रियाएं हाँ,हूं मे आनी शुरु हो गई मै समझ गया कि एवोमिन ने अपना असर शुरु कर दिया है। इसी बीच मुकेश जी के साथ एसएमएस बाजी हुई वें भी हमारी कमी को महसूस कर रहे थें और हम तो सफर मे थें ही पिछले तीन दिनो की यादों के सहारे...।
रास्ते मे एक मिडवे पर बस रुकी तब फिर हमने जिज्ञासावश बस कंडक्टर से पूछा कि भईया अंबाला कब तक पहूंच जाएगी उसने बेसुरा और सपाट उत्तर दिया कि पता नही,हालांकि वही के एक दूकानदार ने बिना पूछे बता दिया कि यहाँ से अंबाला 80 किलोमीटर है...भांति-भांति के लोग क्या कहा जा सकता है लेकिन मै मनोविश्लेषणात्मक रुप से सोच रहा था कि हो सकता है कंडक्टर इस तरह के सवालों का अभ्यस्त हो और उसे ये सवाल खीझ पैदा करते हो ये समझकर हमने उसकी इस गुस्ताखी को माफ कर दिया। हालांकि बाद मे उसने मेरे मनोविज्ञान के ज्ञान को बिल्कुल गलत साबित किया।
इस मिडवे पर खाने लायक कुछ था नही लोग आंख बचा कर पी जरुर रहे थे अपने साथ लाए अमृत जल को...। हमने कोल्ड ड्रिंक और चिप्स लिए और जल्दबाजी मे खा-पी कर बस मे सवार हो गये।
इसके बाद नींद के झोंको के साथ तब आंख खुली जब बस चंडीगढ पहूंच गयी हालांकि पहले से यह कंडक्टर बस स्टैंड पर बस मे चढने वाले सभी यात्रिओं को चेतावनी के लहज़े मे सूचना दे रहा था कि यह बस चंडीगढ बाईपास से जाएगी चंडीगढ शहर जाने वाले लोग गाडी मे न बैठे,फिर भी बस चंडीगढ के अन्दर तक गई ये अपने आप मे एक अज़ीब बात थी। इसके बाद हमने फिर एक नींद की उडान भरी सुशील जी गहरी नींद मे थे और मै कभी सो जाता तो कभी ब्रेक लगने पर उठ जाता। जब हल्की सी नींद खुली तो कंडक्टर आवाज़ लगा रहा था कि अम्बाला कैंट-अम्बाला कैंट वाले लोग उतर जाएं हम एक बार संभले यह सोच कर थोडे आराम की मुद्रा मे आ गये कि अब इसके बाद अम्बाला शहर का स्टैंड आयेगा और हम वहाँ उतर जाएंगे बस अपनी गति से बढी जा रही थी तभी हमने अपनी अगली सीट पर बैठे एक सज्जन से पूछा कि अम्बाला का स्टाप कितनी देर मे आयेगा तब जो उसने जो बताया उसे सुनकर हम हडबडी से भर गये उसने कहा भईया ! अम्बाला कैंट ही यहाँ का स्टाप है यह शहर मे नही जाती सीधी हाई वे से दिल्ली जाएगी...तब हमने कंडक्टर से कहा कि हम तो पहली बार इस रुट पर आयें है हमे यह बताना चाहिए था कि अंबाला कैंट ही उतर जाओ यही एकमात्र स्टाप है, इस वक्त रात के ढाई-तीन के आसपास का वक्त होगा,बस मे एक अजीब से हलचल मच गई कि कुछ अम्बाला की सवारी बस मे ही बैठी रह गई और अम्बाला निकल गया है, यह फुसफुसाहट सुनकर कंडक्टर तानाशाह की तरह हमारे पास आया बोला निकालो 24 रुपए अगले स्टैंड शाहबाद का टिकट बनवाओं, उसकी टोन मे एक ठसक और इस भूल के लिए हमें खतावार मानकर एक अजीब सी हिकारत थी। अब आप समझ सकते है कि रात के इस वक्त एक अंजान जगह वो हमे उतारने जा रहा है उसे इस घटना अपनी भूल का अहसास होने के बजाए उसे अपने टिकट की पडी हुई थी,जिस पर सुशील जी को गुस्सा आ गया और उन्होने कंडक्टर को लताडा लेकिन वो कंडक्टर हद दर्जे का बदतमीज़ था उल्टा सुशील जी को ही सुनाने लगा हद तो तब हो गई जब बस का ड्राईवर भी बस को साईड मे लगा कर हमसे लडने के लिए आ गया शायद उसे अपनी मोबाईल पर बात करने की टोका-टाकी का बदला लेने का मौका मिल गया था। पहले तो मैं शांत बना रहा लेकिन जब मुझे लगा कि ये ड्राईवर-कंडक्टर हम दोनो को पढे-लिखे बाबूजी समझ कर हावी होने की कोशिस कर रहे है और बदतमीजी पर उतर आए तब जो मैने अपनी बस की यात्राओं से जो सीखा है उसी का सहारा लिया,काया तो भगवान ने ठीक-ठाक ही दी है लेकिन मैने उसके प्रयोग के बजाए उनको संदेश देने के लिए कि हम कोई शहरी बाबू नही है अपनी ठेठ मुजफ्फरनगरी और देहाती टोन मे कंडक्टर को धमकाया अब गुस्सा मुझे भी आ गया था खता सालो कि और हम पर ही हावी...मैने कहा थोडा बोल अरणी(वरना) इलाज भी होजेगा इभी(अभी) साले धरती मे चला दूंगा बाहण....द। तब उसकी समझ मे आया कि फ्रेंच कट साहब(सुशील जी) के साथ कोई ठेठ देहाती मुस्टंडा भी है फिर इसके बाद वो ठंडा पड गया इसी बीच सामने की सीट पर बैठे एक हरियाणवी बुद्दिजीवी किस्म के एक व्यक्ति ने मध्यस्ता करके मामला शांत कराया जिसकी रुचि हमारी असुविधा मे कम और हम उठने से सो सीट खाली होगी उसमे ज्यादा थी। हालांकि पहली बार ऐसा हुआ कि सवारी कंडक्टर के फेवर मे खडी दिखाई दी वरना हमारे क्षेत्र मे हमेशा सवारी सवारी का ही साथ देती है ये बात हमे खली भी, ये तो संयोग था कि हम देहात की पृष्टभूमि के थे अगर कोई विशुद्द शहरी होता और अपनी पत्नि के साथ होता तो पक्का ड्राईवर और कंडक्टर उसकी बेइज्जती तो करते ही साथ धपियापा भी सकते थे और सवारी तमाशा देखती। आप जब कभी हरियाणा रोडवेज़ की बस मे सफर करे तो इस प्रकार की असुविधा के लिए मानसिक रुप से तैयार रहें बडे जाहिल किस्म के लोग हैं।
खैर उसने हमे अम्बाला से बीस किलोमीटर आगे शाहबाद नामक जगह उतारा, उतरते समय हम जितनी गाली हरियाणा रोडवेज़ को दे सकते थे मन ही मन दी और एक दो बात सुनाने के लिए कंडक्टर को भी कही...और अंग्रेजो को कोसा कि क्या जरुरत थी कैंट और शहर अलग-अलग बनाने की। हरियाणा सरकार की पंच लाईन “दूध-दही का खाणा. मे मैने जोडा दिमाग नही लगाणा।
शाहबाद के सुनसान हाईवे पर हम अम्बाला जाने वाली बस की इंतजार करने लगे कुछ लोग और भी थे जल्दी ही पंजाब रोडवेज़ की बस आ गई और हम उसमे वापस अम्बाला के लिए रवाना हो गये लेकिन इस बार अम्बाला को लेकर अतिरिक्त सतर्क थे इसका अन्दाजा आप इस बात से लगा सकते थे कि मैने अपना पिट्ठू बैग कन्धे से नही उतारा ऐसे ही सीट पर तिरछा होकर बैठा रहा। बस की झडप से हमारा इतना बढिया शिमला का मूड खराब कर दिया था हालांकि मै जल्दी ही सामान्य हो जाता हूं ऐसी घटनाओं के बाद लेकिन सुशील जी अभी भी असहज बने हुए थे।
बस ने 20 मिनट मे हमे अम्बाला उतार दिया, उतरते ही मैने एक थम्स अप और एक नींबूज़ की बोतल ली ताकि रिचार्ज हो सके तभी एक जम्मू रोडवेज़ की एक बस आयी जिसमे सुशील के कहने पर चढ गये लेकिन अन्दर एक भी सीट खाली नही थी सब सवारियां सो रही थी तब मैने कहा सुशील जी ऐसे खडे होकर मुझसे तो सहारनपुर तक नही जाया जाएगा बात उनको भी जंची और हम दोनो उतर गये।
हालांकि इस बात का पता हमें सहारनपुर जा कर लगा लेकिन जिक्र इसी पोस्ट मे कर देता हूं इस बस की झडप ने हमारा मूड तो खराब किया ही साथ मे शिमला मे हमारी अवारागर्दी का साथी और सुशील जी के मोल-भाव कौशल का प्रतीक छाता भी इसी झडप ने बस मे छूट गया जिसका हमे वास्तव मे दुख हुआ क्योंकि अब वो उस आदमी के काम आएगा जिसने आधी रात मे हमको वीरान जगह पर उतार दिया था...।
किस्से अभी और भी हैं लेकिन विराम के बाद...
डा.अजीत
पढ़ते चल रहे हैं वृतांत...ऐसी झड़पों से मूड तो ऑफ होना ही था..काहे पड़ गये आप भी इसमें.
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