Wednesday, May 19, 2010

पहला पडाव

घर से निकले थे हौसला करके लौट आए खुदा-खुदा करते....अभी ये गज़ल सुन रहा हूं बात दिल को छु जाती है शायर की... मै 17 को रात के लगभग 11.30 दिल्ली पहूंचा दिल वालो कि इस दिल्ली मे अपना आवारा दिल ले कर...अपने दो पुराने यार उसी गरम जोशी से मिले जैसे कभी पढतें वक्त हास्टल मे मिलते थे हाँ इस बार थोडी वक्त की गर्द जरुर चढ गयी है सभी के चेहरो पर...जिस मे मै भी शामिल हूं तीन दिन से यहा पूरी बेशर्मी के साथ बना हुआ हूं इस फिल्म के कथानक के सन्देश के साथ कि अतिथि तुम कब जाओगें।
दोस्त के लिए मै अतिथि नही हूं लेकिन दोस्त का अपना एक परिवार भी तो है और यह हर कोई नही समझ सकता है कि बिना काम के भी बेवजह खाली मेल मिलाप के लिए कोई घर से झोला उठाये घुम रहा है इतना खाली होना आज के वक्त मे कोई अच्छी बात नही है। सुबह का खाना खाकर अपने खबरिया चैलन के खबरनवीस मित्र बाईट लेने निकल जाते है एक मैं और मेरे एक दोस्त बकौल उनके सितारे आजकल गर्दिश मे है दिन भर भटकते है गली-दर-गली और कभी.....तन्हाई के मारे पार्को मे जा कर बेवजह बहस करते रहते हैं...।
बातों, वादों का दौर लगभग समाप्त हो गया है और आज रात को 12 बजे मुझे निकलना है देहरादून के लिए वहाँ भी दो शुभचिंतक प्रतिक्षा मे है मुझे ऐसा लगता है बाकी तो उन्हे ही पता होगा...। सो अब अलविदा दिल्ली और मै जा रहा हूं देहरादून....वहाँ के किस्से वहाँ जाने के बाद....
डा.अजीत

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