आज दिन भर मै अपने अतीत को सोचता रहा आदत जो है अतीत मे जीने की इसलिए कभी कभी मै अपने आपको अतीत व्यसनी भी कहता हूं। बहुत प्रयास किए है दूनिया की तरह जीने के लेकिन नही कर पाया वो सब जो शायद आज के जमाने मे मैच्योर होने का प्रतीक है। निगाह बदल गई वजूद वही रहा ये कैसा दस्तूर है जमाने का अपनी समझ से तो बाहर है भईया ! वैसे तो मनोविज्ञान मे पी.एच.डी. की पढाई की है पिछले तीन साल से मास्टरी भी कर रहा हूं लेकिन कभी खुद को ही नही समझ पाया,ये छोटी सी बात समझ मे नही आयी कि अपने जैसा कोई दूसरा होता ही नही है सबकी अपनी-अपनी सीमाएं है और शायद रिश्तों की समझ भी यही कहती है।
देहात की जमीदारी पृष्टभूमि से निकला लेकिन कभी मन मे सामंती विचार नही आए अपने कुल के लिए कंलक के समान क्योंकि किसी को बेवजह गरिया नही सकता बेगार नही ले सकता। मित्रो का कभी गौरव हुआ करता था आज मुझे दूनियादारी की समझ नही है फिर कभी कभी मुझे लगता है कि जब कोई आपको देखकर आपके साथ चलने के लिए दौडना शुरु करता है तब आपका भी फर्ज बनता है कि अपनी एक गति बनाए रखें ताकि उसके अन्दर आपको पाने की एक प्यास बनी रहे वरना अक्सर ऐसा होता है कि इस जीवन दौड मे लोग आपको देखते-देखते आगे निकल जाते है और आपकी गति पर भी सवाल खडा कर सकते हैं।
जीवन,उपलब्धि और त्रासदी के अपने अपने खेल है चलते रहते हैं कभी हम किसी को ठग लेते है तो कभी कोई हमे ठग लेता है।बुरे वक्त मे बुराई ही काम आती है मुझे ऐसे मे हरेप्रकाश उपाध्याय जी की कविता याद आ रही है “ बुराई के पक्ष मे”। ये एक अजीब सी मनस्थिति है इसे आप निराशा भी नही कह सकते है बस सबकुछ अनमना सा है मुझे नवाज़ देवबन्दी का शे’र याद आ रहा है ठीक से तो नही याद है लेकिन कुछ इस तरह से ब्यां किया है “ अंधेरा ही अंधेरा छा गया है सवेरा भी उजाला खा गया है”।
फिलहाल नि:संवाद और अद्वैत मे जीने की इच्छा है सो वही कर रहा हूं पता नही कब तक ये सब चलेगा भीड से निकल कर अकेला चलते समय कदम लडखडा से जाते है लेकिन चलना संभल कर होगा क्योंकि अब कोई सहारा देकर संभालने वाला नही है देखते है आदत कब तक जाती है.....। ये ही असली खानाबदोशी है यात्राओं के किस्से तो चलते रहेंगे।
बस लिखते रहिए, हम जैसे कदम से कदम मिलाकर चलने वाले साथी मिल ही जाएंगे।
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