Tuesday, August 17, 2010

रिश्तें

होता है शबो रोज तमाशा मेरे आगे.... गालिब ने सही फरमाया है सच मे ये दूनिया एक तमाशा ही तो है दिन भर कितने भेष भरने पडते हैं जिन्दगी कभी ख्वाब दिखाती है तो कभी एक छलावा भी। पता नही हकीकत क्या है आदमी का समझदार होना मुनासिब है लेकिन कभी कभी अक्लमंदी मे वह यह भूल बैठता है कि इंसान कोई केवल हाड मांस का पुतला नही एक अहसास है इसका अपना और जीने की सबकी अपनी अलग-अलग वजह।

तकलीफ होती है रिश्तों की बुनियाद में जब सीलन से भर जाए ऐसे मे सपनो,महत्वकाक्षांओ और अपनेपन का वजूद लडखडा ही जाता है।हर आदमी का अपना एक अलग मिजाज़ होता है अलग मसला होता है और वही उसकी होने की एक वजह भी रिश्तों की कशिश तभी तक महफूज़ रहती है जब तक उसमे जज़्बात की कद्र हो और अल्फाज़ का महत्व।

जाने अनजाने मे कई मर्तबा ऐसा अक्सर हो जाता है कि हम उस जहीन आदत को नज़रअन्दाज कर देते जो रिश्तों के होने की पुख्ता वजह होती है और शायद वह बुनियाद भी जिस पर अहसास की बुलन्दी खडी होती है।

मेरे ऐसा मानना है कि रिश्ते तवज्जो के तालिब होते है और तवज्जो दी भी जानी चाहिए लेकिन हम अक्सर ये मानकर चलते है कि फलां बात से भला क्या फर्क पडने वाला है लेकिन जब रिश्तें अदबी और जहीन हो तब उस हर एक अल्फाज़ की कीमत होती है जो किसी की शान मे ब्यां किया जाता है।

आदमी का अपना एक सरमाया है वो उसी के साथ जीता है लेकिन मन खलिश तब पैदा होती है जब अपने साथ का,अपने अहसास का और अपने ज़ज्बात का चश्मदीद शख्स ऐसे सवालात करें जो आपके वजूद को ही बिखेर कर रख दें कहने को बाद मे सफाई दी जा सकती है कि क्या इस रिश्तें की बुनियाद इतनी कमजोर थी कि एक छोटी सी बात से हिल गई लेकिन बात छोटी हो या बडी इससे क्या फर्क पडता है फर्क तो इससे पडता है कि किस मौंजू से कही गई है और उसका वास्ता और मकसद क्या है।

जिन रिश्तों मे बात-बात पर सफाई देनी पडे उनका न होना ही बेहतर है दूसरी बात हो सकता इससे मै मतलबी लगूं लेकिन बुरे वक्त मे आदमी अपने अजीज को ही याद करता है और ऐसे वक्त मे वो काम न आ सके तो पीडा तो होती ही है...काम न आना इतनी बडी बात नही जितनी बडी बात यह है उस वक्त आप जो बात जितनी गहराई से कह रहे हो सामने वाले को उसका अहसास ही न हो।

...फिर मै समझता हूं कि खाली गाल बजाई और अपनी दूनियादारी की तरक्की के किस्सेगोई के लिए किसी रिश्तें से जुडे रहना किसी भी ज़ज्बाती इंसान के लिए आसान नही है अगर वो निभा भी रहा है तो उसको रोजना जीना पडता है और रोजाना मरना....।ख्याल इस शेर से खत्म करता हूं...

पढना है तो इनसान को पढने का हुनर सीख

हर चेहरे पे लिख्खा है किताबों से जियादा (फारिग बुखारी)

डा.अजीत

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