Friday, July 9, 2010

अम्बाला- देहरादून

सामने ही अम्बाला कैंट का रेलवे स्टेशन है तभी एक विचार आया कि हो सकता है कि कोई ट्रेन मिल जाए फिर जितनी थकान हो रही थी उसमे रेलयात्रा एक अच्छा विकल्प था। रेलवे पूछताछ पर पता चला कि लगभग आधे-एक घंटे के बाद हेमकुंट एक्सप्रेस जाएगी।हमने टिकिट लिया और रेल की प्रतिक्षा करने लगे। जैसे ही ट्रेन आई पता नही कहाँ से इतनी भीड चढने के लिए खडी हो गई जोकि पहले प्लेटफार्म पर दिखाई भी नही दे रही थी।टिकट के नियमानुसार हम जनरल डिब्बे मे चढने का प्रयास करने लगे लेकिन जो भीड अंदर थी उसे देखकर हमारे तरपण(रोम-रोम )कांप गये। किसी तरह अपने दैत्याकार काया से जगह बनाता हुआ बूढों और महिलाओं को धकियाता हुआ मै चढ तो गया और सुशील जी को भी चढा लिया लेकिन अन्दर तो लोग टायलेट के बाहर तक चिपके हुए थे। ऐसा लगा किस नरक मे आ गये है फिर मैने निर्णय लिया कि इस जनरल डिब्बे मे एक पैर पर खडा होकर किसी भी हालत मे नही जाया जा सकता फिर उतरने की मुसीबत लोग पीछे भी सेट हो गये थे किसी तरह से मैने अधकचरी पंजाबी भाषा मे बोलते हुए आग्रह किया ओय वीर जी असानूं उतरणा है..तब जाकर किसी तरह उतरे।

मैने सुशील जी से कहा कि आप किसी टीटीई से बात करके देखो और उसको बताओं कि हम दो पत्रकार लोग अगर किसी स्लीपर चढने की अनुमति मिल जाए तो सहारनपुर तक आराम से जाया जा सकता है लेकिन उन्होने मेरे प्रस्ताव मे कुछ खास रुचि नही दिखाई शायद यह थकावट और बस की घटना का असर था जिससे वें उभर नही पा रहे थें।

फिर मैने ही तीने काले कोट(टीटीई) वालो को पकडा और कहा सर, हम दो जर्नलिस्ट लोग है सहारनपुर तक जाना है किसी स्लीपर कोच मे व्यवस्था हो सकती है क्या? उनमे से दो ने अपने हाथ खडे कर दिए फिर एक ने कहा कि टिक़िट दिखाओं मैने झट से टिकिट दिखा दिया मुझे लगा कि यह पत्रकार होने के नाते हमारा लिहाज़ कर रहा है और व्यवस्था कर देगा लेकिन अगले ही पल उसने कहा लाओ सौ रुपये! हालांकि उस वक्त हालत यह थी कि अगर वह दौ सो भी मांगता तो हम दे देते, मैने तुरंत उसको सौ रुपये बतौर सुविधा शुल्क के दिए तब उसने कहा एस-1 मे खडे हो जाओं जाकर...।ट्रेन की भीड देखकर खडे होने की सुविधा भी बडी लग रही थी, लेकिन थोडा अजीब भी लगा जो टीटीई एक पत्रकार का परिचय देने के बाद भी बेशर्मी से सौ रुपये की रिश्वत ले सकता है वो एक आम आदमी से क्या-क्या वसूलता होगा। उसने टिक़िट पर अपनी कलम से कुछ लाईने खींची जिसका कोड वर्ड की भाषा मे यह अर्थ था कि कम लोग उनकी सेवा कर चूके है अगर कोई दूसरा टीटीई भी देखेंगा तो उसकी समझ मे आ जाएगा और वो फिर निर्बाध यात्रा करने देगा। आप भी सुविधा शुल्क और कोड वर्ड से युक्त टिकिट देख सकें इसलिए वह टिक़िट मे नीचे डाल रहा हूं।


खैर..एस-1 कोच का नज़ारा ही दूसरा था सब गहरी निन्द्रा मे लीन थे, एक भी सीट खाली नही थी पुरुष,महिलाएं,बच्चे और बूढे सभी वर्ग के यात्री साधिकार आरक्षण की यात्रा का आनंद ले रहे थे फिर वो वक्त भी गहरी नींद का था। जिन महिलाओं के पास थोडी बहुत बैठने की जगह बन सकती थी उनकी लेटने की मुद्रा इतनी असहज़ और अस्त-व्यस्त किस्म की थी कि बैठने की हिम्मत ही नही हुई यह डर लगा रहा पता नही किस पल ये हमे बैठा देखकर चीख पडे और इनके स्वामी हमारी सामूहिक सेवा कर दें।

बडे बेबस और लाचार पूरे कोच मे घुमते रहे फिर मैने अचानक देखा कि एक छोटी लडकी साईड लोअर सीट पर सिकुडी हुई लेटी हुई थी वहाँ पर धृष्टतापूर्वक सुशील जी बैठा दिया तथा अपना लेपटाप उपर रख दिया,थोडी देर बाद मैने देखा एक माताजी बिल्कुल सुशील जी के करीब खडी जिसको हमने पहले तो अपनी श्रेणी का समझा लेकिन वो कुछ ज्यादा ही संकोच कर रही थी खडे होने मे भी जिसके कारण सुशील जी ने उससे पूछ लिया कि आपको कहाँ तक जाना है तब उस बेचारी ने बडी शालीनता से बताया कि सुशील जी जहाँ बैठे हुए है दरअसल उसकी सीट है वो अभी थोडी देर पहले टायलेट गई थी लौटी तो सुशील जी को बैठा पाया,यह सुनकर हम झेंप गये और सुशील जी ने सीट खाली कर दी लेकिन उस माताजी ने अपनी उदारता का परिचय देते हुए सुशील जी को बैठने के लिए एक जरा सा कोना दे दिया। मैं थोडी देर खडा रहा लेकिन मेरे भी पैरो मे खुन उतर रहा था फिर मैने भी वही पर एक लोअर बर्थ पर बिल्कुल मामूली सी जगह पर अपना पिछवाडा टेक दिया हालांकि मै फिसल रहा था और लम्बाई के कारण बीच मे सिर भी नही आ रहा था,लेकिन विकल्प न होने की दशा मे एडजस्ट हो गया।

हमे बैठे अभी थोडी ही देर हुई थी एक मद्रासी टाईप का आदमी चिल्लाया,अरे भागा! चैन खींच कर भागा! तब हमे पता लगा कि कोई चोर उसकी सोने के चैन खींच कर ट्रेन से कूद गया है...थोडी देर मे वो भी शांत हो गया किसी ने भी न उससे पूछा और न ही सांत्वना ही दी...। इस घटना पर सुशील जी ने टिप्पणी की कि एक पुरुष को जरुरत ही क्या है आभूषण के साथ यात्रा करने की..मैं भी उनसे सहमत था।

इसी बीच वही टीटीई आया और उसने हमारा हाल-चाल जानने के लिए हमे साहब के सम्बोधन से सम्बोधित किया और बताया कि वह कैसे यात्रियों की सुविधा का ख्याल करता है 100 रुपये लेकर वरना अगर पर्ची कटे तो 300 से कम की नही कटेगी उसके इस जस्टीफिकेशन हमने कोई रुचि नही दिखाई हाँ उसको औपचारिक रुप से धन्यवाद जरुर कहा कोच मे खडे होने की अनुमति देने के लिए..।

जिस बर्थ पर मै बैठा हुआ था उस पर लेटे आदमी को अपने वजूद का जल्दी ही अहसास होने लगा फिर उसने आरक्षण अपनी सुविधा के लिए करवाया था किसी मेरे जैसे आदमकद के लिए तो बिल्कुल नही...वो कभी अपने पैर चौडे करके फैलाने का प्रयास करे कभी मेरे पिछवाडे पर पैर मारे और नींद मे बडबडाने का अभिनय करता हुआ मेरे वहाँ बैठने पर उसको हो रही असुविधा का प्रतिकार करें।

सुशील जी भी केवल एक नुकीले भाग पर बैठे हुए थे उनका पिछवाडा बिल्कुल माताजी के मुहँ के पास था जिसे देखकर मुझे हँसी भी आ रही थी और दया भी। सुशील जी ने मुझसे कहा कि जिस सीट पर मै बैठा हुआ हूं उस पर लेटे हुए आदमी से आग्रह की मुद्रा मे अपनी समस्या बता दूं लेकिन मेरा साहस नही हुआ और मैं बेशर्मी से बैठा रहा...।

थोडी देर मे भाषाई नजदीकी काम आई संयोग से वह आदमी रुडकी का रहने वाला था और सपरिवार वैष्णों देवी के दर्शन करके आ रहा था और जब मैने कहा कि मै हरिद्वार का रहने वाला हूं तो उसने अपने ठोकर वाले पैर समेट लिए और कहा कि भईया भीड मे तो एडजस्ट करना ही पडता है।

जैसे तैसे दिन निकल गया और हम सहारनपुर पहूंच गये..जब हम लोग ट्रेन से उतर कर बाहर जा रहे थे तब उसी टीटीई ने फिर से सेल्यूट करते हुए सलाम किया बस उसकी एक यही अदा हमे पसंद आई और लगा पैसे वसूल हो गये और एक यही वजह भी है मैने इस पोस्ट मे उसका नाम नही डाला है वरना मै पहले मन बना चूका था कि जब इस यात्रा के बारे मे लिखुंगा इसका नाम जरुर डालूंगा..।

यहाँ रेलवे स्टेशन से बाहर निकल हमने उत्तराखण्ड रोडवेज़ की बस पकड ली जिस समय मै लैगेज़ बाक्स मे अपना बैग ठूंस रहा था तब मुझे एक झटका लगा और मैने सुशील जी को बताया कि मेरी ज़िम लेकर जाने वाले कोल्ड थर्मोस्टेट की पानी की बोतल बैग की साईड वाली जेब से कही रास्ते मे निकल गई जिस पर मेरे बेटे का भी दिल आया हुआ था और मेरे घर से चलते वक्त पत्नि ने भविष्यवाणी भी की थी कि आप जब वापस लौटेंगे तो पक्का रह बोतल खोकर लौटेंगे। उसकी भविष्यवाणी सही सिद्द हुई मुझे थोडा दुख भी हुआ क्योंकि इस बार यह बोतल मेरा बेटा अपने स्कूल मे ले जाने वाला था।

जैसे ही मैने अपने बोतल खोने की बात बताई तुरंत सुशील जी न कहा बोतल ही नही मेरा छाता भी खो गया है फिर जब हमने रिमाईंड करने की कोशिस की तो पता चला कि छाता हरियाणा रोडवेज़ की बस मे छूटा और मेरी बोतल उस वक्त निकली जब हम हेमकुंट एक्सप्रेस के जनरल कोच मे धक्का-मुक्का करते हुए चढे थे...।

खैर जो गया सो गया लेकिन बहुत देर तक मलाल रहा दोनो चीज़ो के खो जाने का...।

सुशील जी चूंकि मान्यता प्राप्त पत्रकार है सो उन्होने बस कंडक्टर को अपना पास दिखाया और मेरा टिकिट लिया देहरादून तक का...थोडा सा भाव इस कंडक्टर ने भी खाया पास देखकर और उसको अलट-पलट कर ऐसा देखा जैसाकि वह खुद सूचना विभाग का निदेशक हो या परिवहन विभाग का महाप्रबन्धक...। हम इस बार कोई बहस नही करना चाहते थे अच्छी बात यह रही कि उसने वाद-विवाद नही किया अपने साथ पास को ले गया और थोडी देर मे लौटा दिया।

रास्ते मे पुलिस,दूकानदार,कंडक्टर,शराबी जैसे विषयो पर हमारी चर्चा होती रही और बातों बातों मे देहरादून आ गया।

देहरादून पहूंचने से पहले ही मैने अपने मित्र मनोज अनुरागी जी को एक एसएमएस कर दिया था कि मै 7 बजे तक पहूंच जाउंगा। सुशील जी ने अपनी एक्टिवा आईएसबीटी पर ही पार्क की हुई थी,उनकी थकान देखकर मेरा साहस नही हुआ कि मै उनको यह कह सकूं कि आप मुझे अनुरागी जी घर तक छोड दें। बाद मे यह बीच का रास्ता निकाला गया कि आधे रास्ते तक अनुरागी जी को बुला लिया जाए और आधे रास्ते तक सुशील जी मुझे ड्राप कर देंगे।

सुशील जी ने मुझे देहरादून प्रेस क्लब छोडा और यही थोडी देर बाद अनुरागी जी मुझे लेने आ गये। अनुरागी के साथ घर पर चाय पी गई और फ्रेश होने के बाद मैने कहाँ कि अब मुझे सोना है उन्हे भी अपने आफिस जाना था सो तय यह हुआ कि वो मेरा खाना बना कर रसोई मे छोड कर चले जाएंगे जब मेरी आंख खुलेगी मै खा लूंगा।

हालांकि वो अवस्था मे मुझ से बडे है लेकिन मेरा सम्मान बहुत करते है वो उन चंद लोगो मे से शुमार जिनके मुंह से मुझे डाक्टर साहब सुनना अच्छा लगता है फिर मैने धृष्टता के साथ अनुरागी जी से अनुरोध किया कि मेरा बैग़ मैले कपडो से भरा हुआ वो जब अपने आफिस जाएं इसको किसी धोबी के यहाँ डालते हुए चले जाए यह कहकर कि शाम को धुले हुए चाहिए....मै तो तुरन्त सो गया और उन्होने वैसा की किया जैसा मैने अनुरोध किया था।

दिन मे 12 बजे के करीब मेरी नींद भुख की वजह से खुली तब मैने रसोई मे जा कर देखा कि कुछ खाने के लिए है क्या? अनुरागी जी बडे प्रेमपूर्वक मेरे लिए बैगन का भर्ता और रोटियां बना कर आफिस गये थे मैने उनका भोग लगाया और फिर सो गया।

आज केवल थकान मिटाई गई और खुद को रिचार्ज़ किया गया क्योंकि कल फिर मुझे और सुशील जी को एक नई खानाबदोशी और अवारागर्दी के निकलना है इस बार अपनी मंजिल रहेगी हेमकुंड साहिब और फूलों की घाटी....।

अब यात्रा का एक पूर्ण विराम....अगली यात्रा की किस्सागोई अगली बार..।

डा.अजीत

Thursday, July 8, 2010

शिमला-अम्बाला

जितना उत्साह किसी जगह पर जाने का होता है उतनी ही पीडा वहाँ से आने मे होती है...बस इसी एक अनमने से मन से मै और सुशील जी हरियाणा रोडवेज़ की बस मे बैठ गये जैसाकि मैने अपनी पहली पोस्ट मे जिक्र भी किया था इस बस के कंडक्टर का तेवर,कलेवर और फ्लेवर हमे ठीक नही लगा लेकिन इस चीज़ को बिसरा कर हम सवार हो लिए थे,अभी बस शिमला से निकली ही थी कि सुशील जी ने अपने पर्स से एवोमिन(उल्टी रोकने की दवाई) निकाली और ब्लेड से कुशल कारीगर की तरह आधी काटकर उसका सेवन कर लिया वो एक छोटा ब्लेड भी अपने साथ पर्स मे लेकर चलते है ये भी मुझे तभी पता चला कारण पूछा तो बताया कि यह टैबलेट हाथ से आधी तोडी नही जा सकती सो ब्लेड इस काम आता है। खैर ! उनके लिए यह आधी टैबलेट ही काफी थी जो उल्टी तो रोकती ही है साथ मे उनको नींद का भी सुख देती है,जबकि खासकर बस के सफर मे मुझे कभी नींद नही आती है और इस तरह की शामक दवाईयों का मुझ पर कोई खास असर भी नही होता है वजह अभी नही फिर कभी बताउंगा। बस पहाड के घुमावदार रास्ते पर चली जा रही थी और रात में बिजली की रोशनी मे शिमला का नज़ारा और भी विहंगम लग रहा था तभी अचानक ड्राईवर ने एक हाथ से बस का स्टैरिंग संभाला और एक हाथ से मोबाईल से बात करने लगा बातचीत से लग रहा था कि कुछ पैसो के लेन-देन का मामला है बस की अन्य सवारियां तो किन्नर भाव से यह देख रही थी जबकि वह सबकी जान के साथ खेल रहा था पहाडी रास्ते मे वो भी रात मे इस तरह से बस चलाना किसी भी दुर्घटना को निमंत्रण दे सकता है जबकि उस मूरख खलकामी के ठीक सामने मोटे-मोटे अक्षरों मे लिखा हुआ था कि ड्राईविंग के समय मोबाईल का प्रयोग न करें लेकिन वो बेखौफ नियमो को धता बता कर बातें किए जा रहा था,उसकी इस बेहूदी हरकत पर सुशील जी अपने पत्रकारिता के लहज़े मे सख्त आपत्ति जताई जिसकी थोडी देर बाद उसने फोन अपने कान से हटा लिया इसके बाद सुशील जी ने अपनी जैकट से अपने मूंह को ढका और मेरी बातो को लगभग आधे घंटे रोचकता के साथ सुना इसके बाद उनकी प्रतिक्रियाएं हाँ,हूं मे आनी शुरु हो गई मै समझ गया कि एवोमिन ने अपना असर शुरु कर दिया है। इसी बीच मुकेश जी के साथ एसएमएस बाजी हुई वें भी हमारी कमी को महसूस कर रहे थें और हम तो सफर मे थें ही पिछले तीन दिनो की यादों के सहारे...।

रास्ते मे एक मिडवे पर बस रुकी तब फिर हमने जिज्ञासावश बस कंडक्टर से पूछा कि भईया अंबाला कब तक पहूंच जाएगी उसने बेसुरा और सपाट उत्तर दिया कि पता नही,हालांकि वही के एक दूकानदार ने बिना पूछे बता दिया कि यहाँ से अंबाला 80 किलोमीटर है...भांति-भांति के लोग क्या कहा जा सकता है लेकिन मै मनोविश्लेषणात्मक रुप से सोच रहा था कि हो सकता है कंडक्टर इस तरह के सवालों का अभ्यस्त हो और उसे ये सवाल खीझ पैदा करते हो ये समझकर हमने उसकी इस गुस्ताखी को माफ कर दिया। हालांकि बाद मे उसने मेरे मनोविज्ञान के ज्ञान को बिल्कुल गलत साबित किया।

इस मिडवे पर खाने लायक कुछ था नही लोग आंख बचा कर पी जरुर रहे थे अपने साथ लाए अमृत जल को...। हमने कोल्ड ड्रिंक और चिप्स लिए और जल्दबाजी मे खा-पी कर बस मे सवार हो गये।

इसके बाद नींद के झोंको के साथ तब आंख खुली जब बस चंडीगढ पहूंच गयी हालांकि पहले से यह कंडक्टर बस स्टैंड पर बस मे चढने वाले सभी यात्रिओं को चेतावनी के लहज़े मे सूचना दे रहा था कि यह बस चंडीगढ बाईपास से जाएगी चंडीगढ शहर जाने वाले लोग गाडी मे न बैठे,फिर भी बस चंडीगढ के अन्दर तक गई ये अपने आप मे एक अज़ीब बात थी। इसके बाद हमने फिर एक नींद की उडान भरी सुशील जी गहरी नींद मे थे और मै कभी सो जाता तो कभी ब्रेक लगने पर उठ जाता। जब हल्की सी नींद खुली तो कंडक्टर आवाज़ लगा रहा था कि अम्बाला कैंट-अम्बाला कैंट वाले लोग उतर जाएं हम एक बार संभले यह सोच कर थोडे आराम की मुद्रा मे आ गये कि अब इसके बाद अम्बाला शहर का स्टैंड आयेगा और हम वहाँ उतर जाएंगे बस अपनी गति से बढी जा रही थी तभी हमने अपनी अगली सीट पर बैठे एक सज्जन से पूछा कि अम्बाला का स्टाप कितनी देर मे आयेगा तब जो उसने जो बताया उसे सुनकर हम हडबडी से भर गये उसने कहा भईया ! अम्बाला कैंट ही यहाँ का स्टाप है यह शहर मे नही जाती सीधी हाई वे से दिल्ली जाएगी...तब हमने कंडक्टर से कहा कि हम तो पहली बार इस रुट पर आयें है हमे यह बताना चाहिए था कि अंबाला कैंट ही उतर जाओ यही एकमात्र स्टाप है, इस वक्त रात के ढाई-तीन के आसपास का वक्त होगा,बस मे एक अजीब से हलचल मच गई कि कुछ अम्बाला की सवारी बस मे ही बैठी रह गई और अम्बाला निकल गया है, यह फुसफुसाहट सुनकर कंडक्टर तानाशाह की तरह हमारे पास आया बोला निकालो 24 रुपए अगले स्टैंड शाहबाद का टिकट बनवाओं, उसकी टोन मे एक ठसक और इस भूल के लिए हमें खतावार मानकर एक अजीब सी हिकारत थी। अब आप समझ सकते है कि रात के इस वक्त एक अंजान जगह वो हमे उतारने जा रहा है उसे इस घटना अपनी भूल का अहसास होने के बजाए उसे अपने टिकट की पडी हुई थी,जिस पर सुशील जी को गुस्सा आ गया और उन्होने कंडक्टर को लताडा लेकिन वो कंडक्टर हद दर्जे का बदतमीज़ था उल्टा सुशील जी को ही सुनाने लगा हद तो तब हो गई जब बस का ड्राईवर भी बस को साईड मे लगा कर हमसे लडने के लिए आ गया शायद उसे अपनी मोबाईल पर बात करने की टोका-टाकी का बदला लेने का मौका मिल गया था। पहले तो मैं शांत बना रहा लेकिन जब मुझे लगा कि ये ड्राईवर-कंडक्टर हम दोनो को पढे-लिखे बाबूजी समझ कर हावी होने की कोशिस कर रहे है और बदतमीजी पर उतर आए तब जो मैने अपनी बस की यात्राओं से जो सीखा है उसी का सहारा लिया,काया तो भगवान ने ठीक-ठाक ही दी है लेकिन मैने उसके प्रयोग के बजाए उनको संदेश देने के लिए कि हम कोई शहरी बाबू नही है अपनी ठेठ मुजफ्फरनगरी और देहाती टोन मे कंडक्टर को धमकाया अब गुस्सा मुझे भी आ गया था खता सालो कि और हम पर ही हावी...मैने कहा थोडा बोल अरणी(वरना) इलाज भी होजेगा इभी(अभी) साले धरती मे चला दूंगा बाहण....द। तब उसकी समझ मे आया कि फ्रेंच कट साहब(सुशील जी) के साथ कोई ठेठ देहाती मुस्टंडा भी है फिर इसके बाद वो ठंडा पड गया इसी बीच सामने की सीट पर बैठे एक हरियाणवी बुद्दिजीवी किस्म के एक व्यक्ति ने मध्यस्ता करके मामला शांत कराया जिसकी रुचि हमारी असुविधा मे कम और हम उठने से सो सीट खाली होगी उसमे ज्यादा थी। हालांकि पहली बार ऐसा हुआ कि सवारी कंडक्टर के फेवर मे खडी दिखाई दी वरना हमारे क्षेत्र मे हमेशा सवारी सवारी का ही साथ देती है ये बात हमे खली भी, ये तो संयोग था कि हम देहात की पृष्टभूमि के थे अगर कोई विशुद्द शहरी होता और अपनी पत्नि के साथ होता तो पक्का ड्राईवर और कंडक्टर उसकी बेइज्जती तो करते ही साथ धपियापा भी सकते थे और सवारी तमाशा देखती। आप जब कभी हरियाणा रोडवेज़ की बस मे सफर करे तो इस प्रकार की असुविधा के लिए मानसिक रुप से तैयार रहें बडे जाहिल किस्म के लोग हैं।

खैर उसने हमे अम्बाला से बीस किलोमीटर आगे शाहबाद नामक जगह उतारा, उतरते समय हम जितनी गाली हरियाणा रोडवेज़ को दे सकते थे मन ही मन दी और एक दो बात सुनाने के लिए कंडक्टर को भी कही...और अंग्रेजो को कोसा कि क्या जरुरत थी कैंट और शहर अलग-अलग बनाने की। हरियाणा सरकार की पंच लाईन दूध-दही का खाणा. मे मैने जोडा दिमाग नही लगाणा।

शाहबाद के सुनसान हाईवे पर हम अम्बाला जाने वाली बस की इंतजार करने लगे कुछ लोग और भी थे जल्दी ही पंजाब रोडवेज़ की बस आ गई और हम उसमे वापस अम्बाला के लिए रवाना हो गये लेकिन इस बार अम्बाला को लेकर अतिरिक्त सतर्क थे इसका अन्दाजा आप इस बात से लगा सकते थे कि मैने अपना पिट्ठू बैग कन्धे से नही उतारा ऐसे ही सीट पर तिरछा होकर बैठा रहा। बस की झडप से हमारा इतना बढिया शिमला का मूड खराब कर दिया था हालांकि मै जल्दी ही सामान्य हो जाता हूं ऐसी घटनाओं के बाद लेकिन सुशील जी अभी भी असहज बने हुए थे।

बस ने 20 मिनट मे हमे अम्बाला उतार दिया, उतरते ही मैने एक थम्स अप और एक नींबूज़ की बोतल ली ताकि रिचार्ज हो सके तभी एक जम्मू रोडवेज़ की एक बस आयी जिसमे सुशील के कहने पर चढ गये लेकिन अन्दर एक भी सीट खाली नही थी सब सवारियां सो रही थी तब मैने कहा सुशील जी ऐसे खडे होकर मुझसे तो सहारनपुर तक नही जाया जाएगा बात उनको भी जंची और हम दोनो उतर गये।

हालांकि इस बात का पता हमें सहारनपुर जा कर लगा लेकिन जिक्र इसी पोस्ट मे कर देता हूं इस बस की झडप ने हमारा मूड तो खराब किया ही साथ मे शिमला मे हमारी अवारागर्दी का साथी और सुशील जी के मोल-भाव कौशल का प्रतीक छाता भी इसी झडप ने बस मे छूट गया जिसका हमे वास्तव मे दुख हुआ क्योंकि अब वो उस आदमी के काम आएगा जिसने आधी रात मे हमको वीरान जगह पर उतार दिया था...।

किस्से अभी और भी हैं लेकिन विराम के बाद...

डा.अजीत

Sunday, July 4, 2010

शिमला: आखिरी दिन-दो

(कुछ बुद्दिजीवि मित्रों जिनमे लेखक,पत्रकार और चिंतक शामिल है ने यह सुझाव दिया है कि खानाबदोश पर लेखन सूचना प्रधान होता जा रहा और थोडा विस्तार भी ज्यादा है जिससे रोचकता प्रभावित होती है,उनका कहना है कि बात काम्पैक्ट ढंग से कही जाए जिसमे रोचकता का तडका लगा हो...कभी-कभी मुझे भी ऐसा लगने लगता है कि मै कुछ ज्यादा ही बडी-बडी पोस्ट लिख रहा हूं,मै सभी मित्रो के सुझावो,प्रतिक्रियाओं का स्वागत करता हूं लेकिन मुझे ऐसा भी लगता है कि खानाबदोश पर लेखन का उद्देश्य किंचित भी अपनी फक्कडी को महिमामंडित करने का नही था और न ही यह एक तकनीकि रुप यात्रावृत लेखन का ब्लाग है फिर ब्लाग की मूल अवधारणा यही है कि बिना संपादन के जैसा आप महसूस करे ज्यों का त्यों लिख सकते है।यदि मै अपने यात्रावृतांत मे इस लम्बी शैली मे न व्यक्त करुं तो मुझे यह संताप लगा रहेगा कि बहुत कुछ छूट गया है। और सबसे बडी बात मै गागर मे सागर भरने वाली कला भी तो नही जानता हूं, फिर भी ईमानदारी से प्रयास करुंगा कि आपको लेखन बोझिल न लगे..।)

------------------------------------------------------------------------------------------------------------------

...अब बस कुछ ही घंटो का वक्त बचा था शिमला मे क्योंकि हम को आज रात को देहरादून के लिए वापसी पकडनी है कार्यक्रम कुछ इस तरह से बना है कि मै और सुशील जी आज वापस देहरादून लौट रहे है हमे एक दिन विश्राम करके खुद को रिचार्ज करना है और उसके अगले दिन हम अपनी नई यात्रा शुरु करेंगे जोकि हेमकुंड साहिब और फूलो की घाटी की होगी जिसके रोमांच को फील करके मै शिमला के वियोग को भुलने की कोशिस कर रहा हूं। मुकेश जी अभी एक दिन और शिमला मे रुकेंगे और फिर दिल्ली जाएंगे वहाँ पर उनका आध्यात्मिक विषयक परिसंवाद का कार्यक्रम है हालांकि हमने उनसे एक साधिकार भावुक आग्रह किया कि हमारे साथ हेमकुंड की तरफ चलें क्योंकि हमारी तीनो की तिकडी की एक खास किस्म की आपसी मौन समझ है जिससे सफर मे आसानी रहती है लेकिन उनका कार्यक्रम पहले से ही तय था सो उन्होने विनम्रतापूर्वक मना कर दिया।

बात वही शुरु करता हू जिस रेस्त्रां की सीढियों पर हम बारिश के कम होने का इंतजार कर रहे थे वहाँ हमे खडे हुए तकरीबन आधा घंटा हो गया था तभी बारिश थोडी कम हुई तो हम लोग यहा से निकल पडे हल्की-हल्की बून्दों मे भीगते हुए जा रहे थे तभी फिर से अचानक बारिश तेज़ हो गई मुकेश जी ने उपर की तरफ इशारा करते हुए कहा कि वहाँ शिमला की पब्लिक लाईब्रेरी है वहाँ चलते है बारिश से भी बच जाएंगे साथ ही अखबार भी बांच लेंगे।

भागकर लाईब्रेरी मे घुसा गया अंदर एकदम सन्नाटा पसरा हुआ था लोग बडी ही गंभीरता से अखबार पढ रहे थे एक भी कुर्सी खाली नही थी हमने एक कोने मे अपने लिए जगह बनाई मै और मुकेश जी साथ बैठ गये सुशील जी थोडा आगे जाके शिफ्ट हो गये। यहाँ मैने तहलका मैग्जीन के एक-दो पुराने अंक उठा लिए और ऐसे सी पलट-पलट कर देखने लगा,उसमे एक अच्छी स्टोरी मैने पढी जोकि भारत मे मानसिक रोगियों की स्थिति एवं उनके उपचार के विषय पर थी चूंकि मेरा भी थोडा बहुत ताल्लुक मनोविज्ञान से है सो अच्छी लगी,मुकेश जी ने तहलका मे प्रकाशित होने वाले उनके प्रिय स्तम्भ साईकोलोजिज़ के बारे मे बताया कि वे केवल इसके लिए तहलका पढते हैं।

मुकेश जी और सुशील जी के बारे मे तो कह नही सकता लेकिन लाईब्रेरी के अन्दर पसरे पाठकीय शिष्टाचार जिसमे मौन अपना तांडव कर रहा था और ओढी हुई गंभीरता अपने होने का उत्सव मना रही थी ऐसे माहौल मे मुझे बैचनी होने लगी थी फिर मै अपढ किस्म का आदमी ठहरा इतना पढने लिखने की मुझे आदत भी नही...तभी बारिश ने मेरे मन को ठीक ठीक समझा और अपने उत्सव विलाप को थोडा हल्का कर लिया जिसके बल पर हम तीनो ने लाईब्रेरी से विदाई ली और माल रोड पर पहूंच गये कदम खुद-ब-खुद रुम की तरफ बढ रहे थे क्योंकि रुम पर जाकर थोडा आराम करने के बाद हमको रात को निकलना भी था,रास्ते मे सुशील जी नेट पर कुछ काम किया मेल वगैरह चेक की हम उनकी प्रतिक्षा करते रहे तभी मुकेश जी ने शिमला छोडने की पीडा पर चासनी उडेलते हुए गुलाबजामुन खाने का प्रस्ताव रखा जो हमारे थके चेहरो पर मुस्कान की माफिक था।

ठंड मे गरम-गरम गुलाब जामुन खाने का मज़ा और ही है मेरा मन दो पीस लेने का था लेकिन फिर संकोच कर गया और फिर हम तीनो शिमला की मिठास के साथ आगे रुम की तरफ बढ चले, रास्ते मे विभिन्न विषयों पर बात होती रही, सुशील जी घटनाओं के विषय मे चर्चा करते समय मेरा मनोविश्लेषणात्मक वर्जन लिए बिना नही मानते सो उनके साथ विषय के प्रति एक अपडेटड आउटलुक के साथ चलना पडता है पता ही नही चलता कि मित्र सुशील कब जिज्ञासु पत्रकार सुशील बन जातें है यहाँ वसीम बरेलवी साहब का एक शेर मुझे याद आ रहा है,बिगडना भी हमारा कम जानो,तुम्हें कितना संभलना पड रहा है

रास्ते मे बहुत बार मै मौजूं के हिसाब से कुछ समसामयिक,प्रासंगिक और सारगर्भित शेर सुनाता रहता हू जिस पर सुशील जी दाद देते है पता नही मन से या मेरा मन रखने के लिए हालांकि मेरा अन्दाज़-ए-ब्याँ इतना अच्छा नही है ऐसा मेरे एक मित्र की पत्नि और मेरी भाभी जी का कहना है।

हम तीनो रुम पर पहूंच गये और पुनश्च: बख्तरबंद ढीले करके मात्र अधोवस्त्रो मे अपने-अपने लिहाफ मे पैक हो गये है, लेपटाप पर कुछ गानें सुने गये,देखे गये तभी अचानक मुझे न जाने क्या सुझी कि मैने सुशील जी से उनकी जन्म तिथि पूछी और कहा कि आज आपकी कुंडली बांचता हू जिसके लिए वे सहर्ष तैयार हो गये मुकेश जी भी कौतुहलवश समर्थन कर रहे थे जैसे किसी सभा मे किसी नये प्रस्ताव का एक प्रस्तावक होता है और एक उसका अनुमोदक,सो बस आप यूं मान लिजिए कि मैने कुंडली वाचन का प्रस्ताव रखा और मुकेश जी ने उसका अनुमोदन किया।

बडी अज़ीब सी बात है कि मै लिखता कविता हूं,पढता कुछ भी नही,पढाता मनोविज्ञान हूं और शौकिया ज्योतिष मे हाथ आजमा लेता हू सो मैने सुशील जी को बता दिया कि ज्योतिष मे मेरी एप्रोच टिपिकल पंडताई वाली नही है बस कोशिस करता हूं कि ग्रहो की स्थिति और दशा-महादशा देखकर अपने अल्पज्ञान के साथ ठीक-ठीक विश्लेषण कर सकूं और कोशिस करता हूं कि मेरे कथन अनुमान पर आधारित न हो।

फिर मै जो बता सकता था वह उनको बताया जिसमे उनकी अतीत,भविष्य और स्ट्रेंथ से लेकर कमजोरी तक सबके विषय मे बडी बेबाकी से मैने अपनी बात कही जिससे वे सहमत भी थे और निष्कर्षत: उन्होने बताया कि मेने जो वचन,उद्घोषणा और निर्णय निर्धारण उनके विषय मे किए वे लगभग 95 प्रतिशत सही है यह सुनकर मुझे अच्छा लगा और सुशील जी के मुखारविंद से यह बात सुनकर मुझे कुछ ज्यादा ही अच्छा लगा क्योंकि एक बार लगभग दो साल पहले कुरुक्षेत्र से लौटते हुए मैने जिज्ञासावश सुशील जी से पूछा था कि क्या आप ज्योतिष पर विश्वास करते है? तब उन्होने अपनी वामपंथी वैचारिक पृष्टभूमि और तार्किक,बुद्दिवादी मन के बल से प्रेरित होकर एक बंकिम मुस्कान के साथ कहा था कि मै ऐसे किसी विषय पर विश्वास नही करता जो नितांत ही अनुमान पर आधारित हो!

इसके बाद मैने यह विषय वही बंद कर दिया था लेकिन आज शिमला मे सुशील की कुंडली बाचने पर उनकी स्वीकृति और फिर मेरे कथनो की पुष्टि से मेरा मन खुश हो गया। आज मैने न केवल सुशील जी की कुंडली बांची बल्कि उनकी बेटी की कुंडली का भी विश्लेषण किया जिसमे कई रोचक बात सामने आई।

शाम हो गई है इससे पहले आदतन सुशील जी ने आदतन एक नींद लेने की कोशिस की लेकिन कुछ वीवीआईपी किस्म के फोन आने के बाद वे उनके समीकरणों मे व्यस्त हो गये। अब वो घडी आ गई है जब हमे विदाई लेनी है मन भारी है और एक मोह सा हो गया है इस कमरे से भी...। ऐसी स्थिति मे मै थोडा कमजोर पड जाता हूं सो सुशील जी ने इनिशिएटिव लिया और बैग मे अपना सामान लगाने लगे जो मेरे लिए एक मौन संदेश था कि अब यहाँ से कूच की तैयारी करो...।

हम दोनो ने अंतिम दर्शन के रुप मे एक बार फ्रेश होने की भूमिका पूरी की और फिर सारा सामान पैक करके भारी मन से निकल पडे।

यही रास्ते मे वह हेरिटेज़ होटल पडता है जिसका नाम है Hotel Clarks,इसकी भी अपनी एक रोचक दास्तान है जो मुकेश जी ने मुझे बताई थी हुआ यूं था कि ओबराय ग्रुप के संस्थापक रायबहादुर मिस्टर मोहन सिंह अविभाजित पंजाब प्रांत से शिमला आए थे उन दिनो शिमला अंग्रेजी शासको की ग्रीष्मकालीन राजधानी हुआ करती थी। रायबहादुर मि.मोहन सिंह ने Hotel Ceicil मे पचास रुपये महीने की फ्रंट डेस्क क्लर्क की नौकरी शुरु की थी इस होटल के ब्रिटिश मालिक Ceicil मोहन सिंह की कार्यशैली और समर्पण भाव से बहुत प्रभावित थे।,कुछ वर्षो के बाद मिस्टर Clark ने Clark होटल खरीद लिया और मोहन सिंह ओबराय को इसके संचालन मे सहयोग करने के लिए कहा,1938 मे मोहन सिंह ओबराय ने अपने जीवन की पहली सम्पत्ति के रुप मे इस Clark होटल को खरीद लिया इसे खरीदने के लिए रायबहादुर मिस्टर मोहन सिंह ने अपनी पत्नि की सारी ज्वैलरी और अपना अन्य सामान गिरवी रख दिया था। अब होटल Cecil भी Hotel Cecil Oberio के नाम से जाना जाता है,क्योंकि बाद मे यह भी ओबराय ग्रुप ने खरीद लिया था। हेरीटेज़ होटल Clarks मे 500 मे कमरे है।वैसे तो अब यह विलासिता का प्रतीक है लेकिन मेरे जैसे मुंगेरीलाल को प्रेरणा भी देता है कि दुनिया मे कुछ भी असंभव नही है। इसी होटल के पास से सुशील जी ने भेलपूरी मिक्सचर टाईप की मूंगफली ली बिना मिर्च की और मैने मिर्च वाली जिसको खाते-खाते हम लोग चल पडे अब ज्यादा बातचीत नही हो रही थी बस एक दूसरे की उपस्थिति को महसूस करते हुए चल रहे थे। सुशील जी ने भेलपूरी मिक्सचर टाईप की मूंगफली ली बिना मिर्च की और मैने मिर्च वाली जिसको खाते-खाते हम लोग चल पडे अब ज्यादा बातचीत नही हो रही थी बस एक दूसरे की उपस्थिति को महसूस करते हुए चल रहे थे.

पत्नि के एक दिन पूर्व आग्रह पर सुशील ने ब्राउनी खरीदी हालांकि वो पहले यहाँ से नही ले जाना चाह रहे थे लेकिन जब हमने दबाव बनाया तो वें मान गये।

हम लोग लिफ्ट पर पहूंच गये है अब वो पल आ गया है जब ये तिकडी टूटने वाली थी मैने मुकेश जी को अपने भावुक क्षण बताए कि मैं जब कोई जब कोई जगह छोडता हूं एक अजीब सी पीडा होती है जिस पर उन्होने एक संक्षिप्त टिप्पणी की कि सावधान वैराग्य के समीप हो

बस इसके बाद हमने एक दूसरे से गले मिलकर विदाई ली और साथ बिताए अच्छे पलो को याद करते हुए भारी मन और रुंधे हुए गले से अपनी-अपनी राह पकड ली...।

सुशील जी लिफ्ट के लिए टिकिट की लाईन मे लग गये है और मै दूसरी लाईन मे लगा उनकी प्रतिक्षा कर रहा था..।

फिर यूं ही कभी चूप कभी दूनिया को गरियाते हुए हम दोनो बस स्टैंड पहूंच गये है..यहाँ से हरियाणा रोडवेज़ की बस मे बैठ गये,पहले नीचे कंडक्टर से पूछा कि भईया ये अंबाला जाएगी क्या वो पता नही किस बात से खुद से नाराज़ है या हमारी शक्ल उसको पसंद नही आई उसने कोई जवाब नही दिया फिर एक यात्री से पूछ कर हम बस मे चढ गये।

ठीक रात के 9 बजे बस शिमला से चल पडी है....अलविदा शिमला.. न जाने अब कब यहाँ दोबारा आना हो..!

रास्ते के सफर के अपने अलग किस्से है जिनका जिक्र अगली पोस्ट मे करुंगा...।

डा.अजीत

अलविदा शिमला: कैमरे की नज़र से












Saturday, July 3, 2010

शिमला: आखिरी दिन-एक

सबसे पहले एक फोटो डाल रहा हूं जिससे यह पुष्टि हो सके कि कल कितनी बारिश मे भीगे थें हम| सुबह जब हम लोगो ने दोबारा फिर आवारागर्दी की तैयारी की तो सबसे पहले जूते और जुराबों ने अपने हाथ खडे कर दिए इनमे न केवल सीलन भर थी बल्कि अभी अच्छे खासे गीले थे जिन्हें पहनकर तो कम से कम नही चला जा सकता था। बडी असमंजस की स्थिति थी तभी मुकेश जी ने सलाह दी की पास वाले कमरे मे हीटर रखा हुआ है उसको लिया जा सकता है पहले तो मुझे यकीन नही हुआ कि हीटर से जूते-जुराब भी सुखाए जा सकते है लेकिन सुशील जी के चेहरे की चमक से मै आश्वस्त हो गया और फिर पास वाले रुम से हीटर लाया गया। नीचे के फोटो मे आप देख सकतें है कि हमने किस प्रकार से अपने गीले जुते-जुराब हीटर से सुखाए...


..... जूते सुखाते-सुखाते सुशील जी ने यह भी रहस्योद्घाटन किया कि कल रात उन्होने चुपके से जब मै और मुकेश जी पानी लेने बाहर गये हुए थे तब अपने चमडे के जुतों मे अखबार डाल दिए थें ताकि रात मे वो अन्दर का गीलापन सोंख सके,जिसका असर दिख भी रहा था मेरे स्पोर्टस शूज़ कुछ ज्यादा ही गीले थे लेकिन हीटर का फंडा बहुत कामयाब रहा और मसखरी करते-करते हमने अपने जूतें सुखा ही लिए...।बीच-बीच पास के क्लास रुम से एक बालक-बालिका हमारे कमरे के बाहर के टेरस पर आ जातें थे और बालक बालिका की बालसुलभ जिज्ञासाओं को शांत करने की कोशिस कर रहा था,प्रेम,मित्रता और आयु के प्रभाव से उपजा कौतुहल सुशील जी के लिए हास्य का विषय बना हुआ था जिसमे अपने चुस्त जुमले जोडकर वे उस स्थिति को और भी रोचक बना देते थे, और क्लास रुम से आती ऊर्दू के सबक याद कराती मोहतरमा की मधुर आवाज का अनचाहा आकर्षण भी माहौल को और जीवंत बना रहा था इसी बीच सुशील जी ने बताया कि उन्हें किस तरह से गेस्ट लेक्चर देने का चस्का लग गया है मैने कहा एक क्लास इन बालकों की भी हो जाए जिसे वे हँस कर टाल गये।

अब हम निकल पडे है और आज माल रोड पर नही गये बल्कि सी.एम.आवास से होते हुए छोटी शिमला की तरफ निकल पडे,नाम से भी लगता है कि कभी शिमला का मूल स्वरुप यही रहा होगा बाद मे अंग्रेजो ने नये शिमला को विकसित किया।संयोग से इस शिमला यात्रा के पीछे एक छोटा का औपचारिक कार्य भी रहा था जिसमे दुर्घटना घटित होने से रंग मे भंग पड गया,मुकेश जी के एक सहयोगी मित्र अनिल जो शिमला मे ही रहते है उनकी आज सगाई और शादी का कार्यक्रम था लेकिन जैसाकि कल ही हमे कल सूचना मिल गई थी उनके होने वाले ससुर का कार्यक्रम से ठीक एक दिन पहले आकस्मिक देहावसान हो गया सो बडी अजीब स्थिति बन गयी थी उनके घर पर सो मुकेश जी ने बताया कि इसी रास्ते मे अनिल का घर भी पडेगा तो दो मिनट के शोक सांत्वना देते हुए चलेंगे हम लोग अनिल के घर के बाहर पहूंचे जोकि एक ढलान पर था तभी वहाँ जाकर पता चला कि अनिल घर पर नही है और सगाई के कार्यक्रम को स्थगित न करके नितांत ही निजि और औपचारिक रुप से किया गया है। हमने अनिल के लिए अपना संदेश छोडा और फिर यहाँ से रवानगी ली और साथ मे दुआ भी की,कि ईश्वर को ऐसी विडम्बना नही करनी चाहिए खासकर उस लडकी पर क्या बीतती हो गई जिसकी शादी के ऐनवक्त पर उसका पिता अलविदा कह दें....!

रास्ते मे हिमाचल प्रदेश का सचिवालय है आसपास काफी पुलिसबल तैनात है बाद मे पता चला कि आज किसी संगठन का विरोध प्रदर्शन है। यहाँ के सरकारी अमले के पास वीआईपी श्रेणी की एम्बेस्डर कार एक्का-दुक्का ही है बाकी अधिकांश कारे या तो इंडिगो है या इसी क्लास की स्वीफ्ट वगैरह...पहली बार इन ग़ाडियों पर लाल-नीली बत्तियाँ देखकर इनके वीआईपी होने का अहसास नही होता क्योंकि मै केवल एम्बेस्डर पर ही लाल-नीली बत्तियाँ देखने का आदी हूं..।

एक बस स्टाप पर रुका गया यह सडक के मुहाने पर है मैने और सुशील जी ने अपने-अपने फोन कानों पर लगा लिए है धूप अच्छी खिली हुई है मैने अपनी पत्नि को कल के मसखरी वाले फोन का किस्सा सुना जिस पर उसको आश्चर्यमिश्रित शक व्यक्त किया लेकिन मै अपने मन के बोझ से मुक्त...। थोडी देर यहाँ रुकने के बाद वापस शिमला की तरफ रवानगी पकडी..।सचिवालय के बाहर दीवार पर लिखे एक संदेश ने मेरे शब्द-सामर्थ्य मे इजाफा किया यह शब्द मैने पहली बार पढा था लिखा हुआ था कृपया चढते समय वाहन अनुलंघन न करें, अनुलंघन मैने पहली बार पढा था जिसका नीचे अंग्रेजी वर्जन मे शब्द लिखा हुआ था ओवरटेक।

सिटी बस पकड कर हम वापस लिफ्ट की और जा रहे है बस मे भीड ज्यादा नही थी सो हम तीनो को सीट भी मिल गई है रास्ते मैने सुशील जी के समक्ष अपने मित्र-पुराण की कथा कही जिसमे अपने एक वक्त के साथ बदल गये मित्र की आलोचना-समालोचना थी निन्दा नही, यह कथा मै बांच रहा था और सुशील जी जागरुक श्रोता की तरह है सुन भी रहे थे और अपने आख्नाओं से मेरी बात की पुष्टि भी कर रहे थें और मुकेश जी इस सब का आनंद ले रहे थे।

लिफ्ट पर उतरा गया पहले यही सोचा था कि लिफ्ट से माल रोड तक जाएंगे लेकिन वहाँ की भीड देखकर साहस नही हुआ लाईन मे लगने का एक बार मुकेश जी लाईन मे लग भी गये लेकिन फिर उनका ही निर्णय हुआ कि पैदल ही उपर चलते है। मेरी कथा अभी चालू थी चूंकि इस पुराण के पुरोवाक के सुशील जी भी साक्षी थे सो उनके समक्ष अपनी पीडा उडेल कर एक अजीब सा सुख भी मिल रहा था। उपर चढते हुए रास्ते मे हमने खाने के लिए एक-एक (गांव में बच्चे बुढिया के बाल बोलते है-शहरी नाम मुझे याद नही) लिए और खाते हुए उपर की तरफ बढ चले रास्ते मे एक भिखारिन अपने भुखे बच्चे के नाम पर भीख मांग रही है उसकी भाषा तो समझ मे नही आ रही है लेकिन उसके चेहरे पर पसरा करुणा,ममत्व का भाव किसी वाचिक भाषा का मोहताज़ नही है मुकेश जी अपने वाला बुढिया के बाल का गोला उसके बच्चे को दे दिया और मै और सुशील जी करुणा भाव के साथ आगे बढ चले।

धूप अच्छी निकल गई है हम अब रिज पर पहूंच गये है यहाँ ठंडी हवा चल रही है जो सर्दी के अहसास से भर देती है सामने महात्मा गाँधी की एक मूर्ति लगी हुई है जिस पर यह भी लिखा हुआ है कि वें कब-कब यहाँ आयें और किस सिलसिले मे शिमला मे प्रवास किया।सुशील जी ने उनके शिमला प्रवास पर एक चुस्त जुमला कसा और हम दोनो मुस्कुराएं..।गाँधी जी की मूर्ति के ठीक नीचे बैठ कर हम सुस्ताने लगे एक बच्चा कौतुहलवश महात्मा गाँधी की मूर्ति को देखता की जा रहा है उसकी मां उसको अपने साथ कही और ले जाना चाहती है लेकिन उसका ध्यान लाठी वाले बाबा पर ही है अंत मे थककर उसकी मां उस बच्चे को बताया कि ये महात्मा गाँधी जी है तब बच्चे ने जैसे मन्दिर मे भगवान के सामने हाथ जोडते है ऐसे गाँधी जी को अपनी निश्छल भाव-भंगिमा के साथ नमन किया सच मे अगर मे कही पर भी गाँधी जी की आत्मा स्वर्ग-नरक मे होगी तो खुश हो गई होगी इस नमन पर..।

हनीमून कपल्स घोडो की सवारी से लेकर हिमाचल की लोक वेशभूषा मे फोटो खींचवा रहे है अजीब नशा यह भी...पर अपना दिल लगा यार फकीरी में...।

अचानक फिर से बून्दा बान्दी शुरु हो गई है और थोडी भुख भी लगने लगी है सो हम लोग फिर से उसी रेस्त्रां मे पहूंच गये है जहाँ पर पहले दिन मैने और मुकेश जी 23/-रुपये वाला समोसा खाया था इसकी चर्चा मैने सुशील जी से बैठते ही की....बाहर मंद-मंद बारिश हो रही है अंदर कुलीन लोगो के महंगे डियो-परफ्यूम और रुम फ्रेशनर की मिली-जुली भीनी-भीनी खुशबु माहौल को और रोमानटिक बना रही है नेपथ्य मे आर.डी.बर्मन की मदहोश धुने बज रही बिल्कुल कर्णप्रिय वोल्यूम के साथ..ये शाम मस्तानी मदहोश किए जाए...! तभी मीनू कार्ड से यह तय किया जाने लगा कि क्या खाया जाए मैने बिना देखे समोसा बोल दिया क्योंकि बडे अजीब-अजीब से डिशिज़ के नाम है सो मै प्रयोग करने के मूड मे नही थी क्योंकि सवाल भुख का था ऐसा कई बार हुआ कुछ नया ट्राई करने के नाम पर मैने ऐसी कुछ मंगा लिया कि जो न खाया जाए और पैसे देखकर न छोडा जाए...सो अपना गोल्डन रुल भईया बात जब भुख की हो तो वही खाओं जो आपको पसंद हो और पहले खा चूके हो।

दो समोसे और दो चाय का आर्डर दिया गया,मै केवल समोसा खांउगा और सुशील जी केवल चाय पीयेंगे..।थोडी देर मे चाय और समोसे आ गये मैने पहली बार हिस्सो मे बटी हुई चाय देखी मसलन चाय का पानी (केतली मे),शुगर क्यूब्स,दूध और चाय-पानी छानने के लिए काम्पेक्ट छलनी।खुद बनाओं और पियों..क्या बात है लेकिन चाय का इतना कुलीन और शिष्टाचारिक स्वरुप देखकर इसको बनाने मे मेरे जैसे भदेस आदमी के हाथ काँप सकते है किसी घनघोर शराबी की तरह..।

मैने अपना समोसा चट किया और सुशील जी ने चाय बनाई अपने और मुकेश जी के लिए बाद मे मेरी प्लेट से समोसे का छोटा सा टूकडा उठाते समय सुशील जी को शायद अपने लिए समोसा न मंगाने का खेद जरुर हुआ होगा।

यहाँ पर एक रोचक किस्सा भी हुआ..जो बताता चलूं जैसे ही हम लोग खा-पीकर बाहर निकले तो लगा कि बारिश तेज़ हो गई सो हम तीनो मुख्य प्रवेश गेट के पास ही रुक गये और बारिश कम होने की प्रतिक्षा करने लगे तब हमे अपने साथ आज छाता न लाने का अहसास भी हुआ...मैने तो सहजतापूर्वक प्रस्ताव भी रखा कि यहाँ बाहर छाता-स्टैंड मे इतने सारे छाते रखे हुए है अपना एक-एक उठा कर चलो लोग-बाग तो अपने परिवार,महबूबा के साथ व्यस्त है अपने साथ लाए छाते की फिक्र किसको है और फिर जिसको जरुरत है उसे पहले प्रयोग करना चाहिए....बात मज़ाक की थी।

तभी मैने सुशील जी से कहा कि हमको मुत्र विसर्जन कर लेना चाहिए वो भी सहमत थे सो हम रेस्त्रा के बाहर की तरफ बना टायलेट मे गये वहाँ जाकर देखा कि यह तो एक कामन शौचालय/मुत्रालय है मसलन पुरुष/महिला के लिए अलग-अलग नही बना हुआ था।

लेडीज़ फर्स्ट के अधिकार के साथ एक लडकी और एक महिला क्यू मे थी हम भी लाईन मे लग गये तभी दो महिला और आयी और हमे लाईन मे खडा देखकर खिन्न हो गई लेकिन लाईन तो लाईन है भईया..उनको भी क्यू मे लगना पडा जगह थोडी कम है बाहर बारिश भी हो रही थी सो खिच्च-पिच्च के हालात बने हुए है। जैसे ही टायलेट का गेट खुला हम दोनो एक साथ अन्दर घुस गये इतनी कम जगह थी हगने-मूतने के लिए कि कोई व्यक्ति एक ही काम कर सकता था फिर जब बाहर इतनी भीड का प्रेशर हो तो कोई आदमी फ्रेश कैसे हो सकता है ये बाते हम अन्दर कर रहे थे और हँस भी रहे थे...मैने एक हाथ से गेट पकडा हुआ था अन्दर की तरफ, तभी बाहर से आवाजे आने लगी कि दो लोग एक साथ अन्दर घुस गयें है और अन्दर हँस भी रहे है ये सुनकर हमारी और हँसी छूट गई कि ये किसने नियम बनाया है कि मूतते वक्त आदमी हँस नही सकता! खैर हम जल्दी ही बाहर आ गये और बाहर जब उन महिलाओं ने एक बडी अजीब से नजर से हमे देखा तो तो हमारी फिर से हँसी छूट गई...और हम यह बडबडाते हुए निकले यार अगर मूतना है तो हँसना मना हैं। शहरी लोग और ऐटिकेट्स पसंद लोगो को कहाँ गवारा थे कि एक साथ एक टायलेट दो लोग हँसते हुए मूत्र विसर्जन करें...उन महिलाओं के चेहरो पर ठीक वही भाव था कि कुत्ते की पूछ को बारह साल नुलकी मे रख लो लेकिन रहेगी वो........।

काफी बडा लेखा-जोखा हो गया है इससे पहले की आप मेरी पकाऊं किस्म की शैली से बोर हो जाएं मै लेता हूं एक विराम...।आगे की बात अगली पोस्ट मे।

डा.अजीत